Wednesday 10 August 2011

प्रकाश झा : दामुल से आरक्षण तक ~~ जयप्रकाश चौकसे

प्रकाश झा की ‘आरक्षण’ के प्रदर्शन में रुकावट नहीं डाली जानी चाहिए, क्योंकि समाज के जख्मों को छुपाना नहीं, वरन उजागर करना चाहिए। आरक्षण और जातिवाद लगभग उतने ही खतरनाक हैं, जितने आतंकी हमले। कोई भी फिल्मकार पूरी तरह से निर्भीक होकर समस्या को गहराई के साथ प्रस्तुत नहीं कर सकता, क्योंकि आरक्षण के पक्ष और विपक्ष में बहुत उग्र विचार हैं और सदियों पुराने पूर्वग्रह भी हैं।

इस मानवीय समस्या का राजनीतिकरण दुर्भाग्यपूर्ण रहा है। आज भी समाज अपने अंधविश्वास और पूर्वग्रह पर अडिग है। वर्ष 20क्७-क्8 में बाईस दलित छात्रों का आईआईटी के विभिन्न संस्थानों में दाखिला हुआ, जिनमें से अठारह ने आत्महत्या कर ली और केवल तीन के मृत शरीर के पास आत्महत्या के कारण का लिखित ब्योरा मिला, जिसके अनुसार छात्रावास और कक्षाओं में उनके साथ भेदभाव हुआ और उन्हें इतना अपमानित किया गया कि उन्होंने आत्महत्या की।

जांच-पड़ताल करने वाले अफसरों का विश्वास है कि अन्य पंद्रह के पत्र नष्ट कर दिए गए हैं। अनेक प्रतिभाशाली सवर्ण छात्रों ने भी अवसरों की कमी के कारण आत्महत्या की। भ्रष्टाचार में आकंठ डूबी सरकारें अवसर कैसे बनाएं, युवा राष्ट्रीय ऊर्जा के अपव्यय को कैसे रोकें? हमारे सामाजिक जीवन का कोई भी पक्ष भ्रष्टाचार से अछूता नहीं है। प्रकाशकों को संस्थागत वाचनालयों में किताबें बेचने के लिए मूल्य का चालीस प्रतिशत रिश्वत में देना पड़ता है, इसीलिए वे एक रुपए के माल का मूल्य दो रुपए रखते हैं, जिसका सीधा प्रभाव आम आदमी की किताब खरीदने की क्षमता पर पड़ता है। जिस देश में ज्ञान माध्यम में भी भ्रष्टाचार आ जाए, उस देश में सरस्वती कैसे टिक सकती है।

शिक्षण संस्थाओं के व्यापार पक्ष पर ही प्रकाश झा ने फिल्म में बल दिया है। यह सजग फिल्मकार जानता है कि समस्या का सतही रूप या उसकी उपशाखा पर ही फिल्म बनाई जा सकती है और ऐसे प्रयास में रुकावटों से निपटना कठिन हो जाता है। दरअसल प्रकाश झा ने ‘दामुल’, ‘परिणति’, ‘मृत्युदंड’, ‘अपहरण’ और ‘गंगाजल’ जैसी फिल्मों में समस्याओं की गहराई में जाने का सार्थक प्रयास किया है और ये पांचों ही महान फिल्में हैं। इनके प्रस्तुतीकरण में उन्होंने कहीं भी पलक नहीं झपकाई और अडिग रूप से नजर मिलाते रहे। उसी दौर में प्रकाश झा ने सिनेमा व्यवसाय के बदलते हुए स्वरूप को देखा।

उन्होंने महसूस किया कि अपनी बात कहने के लिए सितारों की आवश्यकता है, ताकि विचार अधिकतम लोगों तक पहुंचें। ‘दामुल’ जैसी महान फिल्म को बमुश्किल चंद हजार दर्शकों ने देखा। उन्होंने अजय देवगन, माधुरी दीक्षित, मनोज वाजपेयी, नाना पाटेकर और ओमपुरी जैसे सशक्त अभिनेताओं के साथ फिल्में कीं, जिन्हें लाखों दर्शकों ने देखा और इन अभिनेताओं ने प्रकाश झा से बहुत कम मेहनताना लिया।

इस दौर तक प्रकाश झा फिल्म निर्माण के बढ़ते हुए दाम, मल्टीप्लैक्स के महंगे टिकट और पूंजी पर खतरे का अनुमान लगा चुके थे। अत: उन्होंने अपने विश्वसनीय और सहयोग देने वाले अजय देवगन, नाना पाटेकर इत्यादि के साथ उभरते हुए रणबीर कपूर और सुरक्षित कैटरीना कैफ को जोड़कर भव्य बजट की ‘राजनीति’ बनाई। बड़े बजट के बावजूद पूंजी पर खतरा न्यूनतम रह गया, क्योंकि इन सितारों को प्रारंभिक भीड़ मिलती है। ‘राजनीति’ सफल रही। इसी मोड़ पर प्रकाश झा के सिनेमा में बड़ा परिवर्तन आया। उन्होंने तय किया कि समस्या का सतही रूप प्रस्तुत करें, ताकि अधिकतम दर्शक को मानसिक अपच न हो जाए।

‘दामुल’ से ‘अपहरण’ तक के फिल्मकार ने मजबूर होकर पलक झपकाने का निश्चय किया। पहली बार उन्होंने मार्केटिंग और प्रचार की रणनीति बनाई। अब तक की यात्रा में उन्होंने इन बैसाखियों को नकारा था, भले ही यात्रा में पैर लहूलुहान हुए। फिल्म बनते समय प्रचार संकेत था कि सोनिया गांधी और राहुल गांधी पर फिल्म बन रही है, परंतु प्रदर्शन पूर्व प्रचार लहर चलाई कि गांधी परिवार नहीं पांडव परिवार की महाभारत पर फिल्म बनी है। यह सच्चई इतनी सफाई से छुप गई कि फिल्म पर ‘गॉडफादर’ का गहरा प्रभाव है और राजनीति का सतही लोकप्रिय स्वरूप सामने आया है।

‘राजनीति’ ओलिवर स्टोन की फिल्मों की तरह यथार्थपरक नहीं है। आज स्थिति यह है कि हरेक सितारा प्रकाश झा के साथ काम करना चाहता है। यह बिहारी फिल्मकार अब दुनियादार हो गया है। सयाना हो गया है। व्यवसाय का यही मर्म गोविंद निहलानी और श्याम बेनेगल नहीं समझ पाए। अत: ‘आरक्षण’ निरापद ही हो सकती है।

Friday 5 August 2011

विलक्षण प्रतिभा संपन्न पंकज कपूर


आजकल छोटे परदे पर पंकज कपूर द्वारा निर्देशित एवं उनके बेटे शाहिद कपूर तथा सोनम अभिनीत ‘मौसम’ के प्रोमो दिखाए जा रहे हैं, जो अन्य फिल्मों से अलग नजर आ रहे हैं। प्रोमो से एक महाकाव्यात्मक फिल्म का आभास होता है, जैसे डेविड लीन की ‘डॉ. जिवागो’। जिवागो का नाम आते ही मन में फिल्म का संगीत ‘लारा की थीम’ गूंजने लगती है।

विशाल कैनवास, नयनाभिराम शॉट्स, पात्रों का आपसी द्वंद्व और उनके मन के कुरुक्षेत्र में चल रही महाभारत का आभास कलाकारों के चेहरे पर दिखता है। रोम-रोम पुलकित कर देने वाले पाश्र्व संगीत से सजी फिल्में अब न हॉलीवुड में और न ही अन्य फिल्म निर्माण केंद्रों पर बनती हैं। यह महाकाव्य पढ़ने वालों का भी कालखंड नहीं है।

आज त्वरित बनने वाली चीजों और क्षणिक प्रभाव उत्पन्न करने वाले नशे का दौर है। आज बीस ओवर का ताबड़तोड़ क्रिकेट पसंद किया जाता है। रबर की तरह खिंचती कहानियों वाले सीरियल और लिजलिजी सतही भावना से ओतप्रोत सोप ऑपेरा का दौर है। सच तो यह है कि यह दौर विज्ञापन फिल्मों में ही अभिव्यक्त हो रहा है।

बहरहाल, पंकज कपूर महान संभावनाओं वाले कलाकार हैं, परंतु उन्हें लोकप्रियता मिली गाजर चबाते हुए अपराध की गुत्थियां सुलझाने वाले जासूस ‘करमचंद’ की भूमिका में। ईगल फिल्म्स के लिए रचा गया सीरियल ‘ऑफिस ऑफिस’ में भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक देखने को मिली। इस हास्य सीरियल का केंद्रीय पात्र है मुसद्दी लाल, जो एक आम आदमी के जीवन में होने वाली परेशानियों को झेलता है।

सरकारी दफ्तर में उसे छोटे से छोटे काम के लिए कितना सताया जाता है। इस तरह की यातना सहने के लिए अभिशप्त व्यक्ति की भूमिका को पंकज कपूर ने इतनी स्वाभाविकता से प्रस्तुत किया है कि दिल पसीज जाता है। यह आम आदमी आरके लक्ष्मण के अजर-अमर काटरून की याद ताजा करता है। रिश्वतखोरी की निर्ममता, निर्लज्जता और अमानवीयता से कौन तंग नहीं है? दफ्तर के बाबू कामचोरी के नए और मौलिक बहाने खोजने में खूब मेहनत करते हैं। इसी प्रतिभा से वे कितना काम कर सकते हैं, इसका शायद उन्हें भी अनुमान नहीं है, जैसे परीक्षा में नकल की पर्चियां बनाने में मेहनत करता विद्यार्थी नहीं जानता कि इससे कम मेहनत में पढ़ाई कर पास हो सकते हैं।

बहरहाल, इस सीरियल में बेचारे मुसद्दीलाल की भूमिका के साथ अपने हमशक्ल पिता और दादा की भूमिकाएं भी पंकज कपूर ने अत्यंत सहजता से निभाई थीं। अब ईगल फिल्म्स ने सीरियल के कलाकारों को लेकर ही उसी कथा पर फिल्म ‘चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस’ बनाई है। इस तरह का एक प्रयोग ‘खिचड़ी’ के नाम से प्रदर्शित हुआ था। वह भी एक लोकप्रिय सीरियल रहा है।

सरकारी दफ्तरों की लालफीताशाही पर बनी इस फिल्म में पंकज कपूर के अभिनय के कारण इसे देखने की इच्छा होती है। फिल्म में एक पेंशन पाने वाले को गलतफहमी की वजह से मृत मान लिया जाता है और एक जीवित व्यक्ति को अपने जीवित होने का प्रमाण देने के लिए लगभग नर्क समान पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इस तरह की व्यथा-कथा लेखक उदयप्रकाश ने अपनी कहानी ‘मोहनदास’ में प्रस्तुत की है। मोहनदास को प्राप्त नौकरी रिश्वत देकर कोई और पा जाता है। बेचारा मोहनदास दर-दर जाकर चीखता है कि वह मोहनदास है, परंतु कोई नहीं सुनता और नकली मोहनदास के किए गए अपराध की सजा असली को मिलती है।

दरअसल आम आदमी के जीवन में दर्द पैदा किया है निर्मम व्यवस्था ने। इस टूटी व्यवस्था की सड़ांध इस कदर वातावरण में व्याप्त हो चुकी है कि दिन में भी सूरज की पूरी रोशनी हमें नहीं मिल पाती।