Thursday 28 April 2011

समय आधारित विज्ञान फंतासी


जयप्रकाश चौकसे की लेखनी से..............
लगभग दो सौ वर्ष पूर्व महान लेखक एचजी वेल्स ने विज्ञान फंतासी का शुभारंभ साहित्य में किया और उनकी कुछ परिकल्पनाओं को आगे जाकर विज्ञान ने तथ्यों में बदल दिया, परंतु समय के मामले में वर्तमान से भूत या भविष्य में मनुष्य के सशरीर प्रवेश की अवधारणा आज भी फंतासी ही है। इस विषय पर विदेशों में अनेक फिल्में बनी हैं और भारत में कुछ कच्चे से प्रयास हुए हैं।



‘2012’ और ‘सेविंग प्राइवेट रियान’ जैसी फिल्मों के लिए प्रसिद्ध हॉलीवुड निर्माता मार्क गॉर्डन ने निर्देशक डंकन जोंस के साथ समय पर ‘सोर्स कोड’ नामक विज्ञान फंतासी रची है, जिसमें पहेली बूझने के आदिकाल से चले आ रहे मस्तिष्क के खेल को पटकथा में गूंथा है। पहेली बूझने के दिमागी खेल को रेडियो और टेलीविजन पर सिद्धार्थ बसु ने अत्यंत लोकप्रिय कर दिया और शिक्षा संस्थानों में भी ऐसे खेल खेले जाने लगे।



समय से प्रेरित कहानियों में एक्शन और नई दृश्यावली के लिए बहुत विराट संभावनाएं होती हैं और पात्रों को फैंसी ड्रेस का मजा भी प्राप्त होता है। ‘सोर्स कोड’ में प्रचलित तत्वों के साथ हास्य को भी गूंथा गया है, क्योंकि आज का युवा दर्शक हास्य की चाशनी में लिपटी हुई यथार्थ की कड़वी कुनैन भी खा सकता है।



समय अवधारणा पर साहित्य में अनगिनत रचनाएं रची गई हैं। पूर्व के दर्शन से प्रभावित टीएस इलियट ने गंभीर और सार्थक प्रयास किए हैं, ‘द व्हील ऑफ टाइम मूव्ज ऑन, इट्स द फूल हू थिंक्स दैट ही टर्न्‍स द व्हील, ऑन विच ही इज मेयरली ए पार्ट।’ समय को समझने के लिए मनुष्य ने सूर्य, चांद और नक्षत्रों का भी अध्ययन किया है और धरती स्वयं के गिर्द घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा भी करती है जैसे आज सामान्य लगने वाले तथ्य को खोजने में भी सदियां लगी हैं।



सारे वैज्ञानिक साधनों के साथ ही मनुष्य ने यह समझ लिया कि प्रेम ही समय की सरहदों के पार जाता है और समय प्रेम के सामने अपना विनाशकालीन स्वरूप खो देता है। प्रेमरत लोग समय के आतंक से मुक्त होते हैं। जावेद अख्तर अपनी एक नज्म में कहते हैं कि चलती हुई रेलगाड़ी में हमें स्थिर खड़े वृक्ष भागते से लगते हैं, अत: कहीं ऐसा तो नहीं कि समय वृक्ष की तरह स्थिर है और हम ही भाग रहे हैं?



पश्चिम का आम आदमी समय का बहुत पाबंद होता है और प्राय: उससे आतंकित भी रहता है, परंतु भारत के लोग बिना कुछ किए घंटों बैठे रह सकते हैं और समय के हौवे को बीड़ी के धुएं में उड़ा देते हैं। अनेक लोग प्रतीक्षा नहीं कर सकते। दरअसल वे स्वयं के भीतर के सूनेपन से घबराए होते हैं और स्वयं की इस कमी के गंदे वस्त्र समय की खूंटी पर टांग देते हैं।



एक बार मुझे मुंबई के एक टैक्सी ड्राइवर ने कहा कि इस शहर में सब भागते रहते हैं, परंतु कोई कहीं पहुंचता नहीं है। आज बाजार युग में मार्केट के क्षेत्र में लगे लोग समय के हंटर से लहूलुहान होते रहते हैं, क्योंकि अवधि विशेष में उन्हें पूर्व निर्धारित संख्या में चीजें बेचनी होती हैं। इसी तरह दवा कंपनियों के डॉक्टर-दर-डॉक्टर चक्कर काटने वाले प्रतिनिधियों को भी प्रतीक्षा की परीक्षा से रोज गुजरना होता है। दरअसल समय की नदी में सतह पर दिखता वर्तमान कहलाता है और नीचे प्रवाहित है भूत तथा भविष्य।

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