Friday 5 August 2011

विलक्षण प्रतिभा संपन्न पंकज कपूर


आजकल छोटे परदे पर पंकज कपूर द्वारा निर्देशित एवं उनके बेटे शाहिद कपूर तथा सोनम अभिनीत ‘मौसम’ के प्रोमो दिखाए जा रहे हैं, जो अन्य फिल्मों से अलग नजर आ रहे हैं। प्रोमो से एक महाकाव्यात्मक फिल्म का आभास होता है, जैसे डेविड लीन की ‘डॉ. जिवागो’। जिवागो का नाम आते ही मन में फिल्म का संगीत ‘लारा की थीम’ गूंजने लगती है।

विशाल कैनवास, नयनाभिराम शॉट्स, पात्रों का आपसी द्वंद्व और उनके मन के कुरुक्षेत्र में चल रही महाभारत का आभास कलाकारों के चेहरे पर दिखता है। रोम-रोम पुलकित कर देने वाले पाश्र्व संगीत से सजी फिल्में अब न हॉलीवुड में और न ही अन्य फिल्म निर्माण केंद्रों पर बनती हैं। यह महाकाव्य पढ़ने वालों का भी कालखंड नहीं है।

आज त्वरित बनने वाली चीजों और क्षणिक प्रभाव उत्पन्न करने वाले नशे का दौर है। आज बीस ओवर का ताबड़तोड़ क्रिकेट पसंद किया जाता है। रबर की तरह खिंचती कहानियों वाले सीरियल और लिजलिजी सतही भावना से ओतप्रोत सोप ऑपेरा का दौर है। सच तो यह है कि यह दौर विज्ञापन फिल्मों में ही अभिव्यक्त हो रहा है।

बहरहाल, पंकज कपूर महान संभावनाओं वाले कलाकार हैं, परंतु उन्हें लोकप्रियता मिली गाजर चबाते हुए अपराध की गुत्थियां सुलझाने वाले जासूस ‘करमचंद’ की भूमिका में। ईगल फिल्म्स के लिए रचा गया सीरियल ‘ऑफिस ऑफिस’ में भी उनकी बहुमुखी प्रतिभा की झलक देखने को मिली। इस हास्य सीरियल का केंद्रीय पात्र है मुसद्दी लाल, जो एक आम आदमी के जीवन में होने वाली परेशानियों को झेलता है।

सरकारी दफ्तर में उसे छोटे से छोटे काम के लिए कितना सताया जाता है। इस तरह की यातना सहने के लिए अभिशप्त व्यक्ति की भूमिका को पंकज कपूर ने इतनी स्वाभाविकता से प्रस्तुत किया है कि दिल पसीज जाता है। यह आम आदमी आरके लक्ष्मण के अजर-अमर काटरून की याद ताजा करता है। रिश्वतखोरी की निर्ममता, निर्लज्जता और अमानवीयता से कौन तंग नहीं है? दफ्तर के बाबू कामचोरी के नए और मौलिक बहाने खोजने में खूब मेहनत करते हैं। इसी प्रतिभा से वे कितना काम कर सकते हैं, इसका शायद उन्हें भी अनुमान नहीं है, जैसे परीक्षा में नकल की पर्चियां बनाने में मेहनत करता विद्यार्थी नहीं जानता कि इससे कम मेहनत में पढ़ाई कर पास हो सकते हैं।

बहरहाल, इस सीरियल में बेचारे मुसद्दीलाल की भूमिका के साथ अपने हमशक्ल पिता और दादा की भूमिकाएं भी पंकज कपूर ने अत्यंत सहजता से निभाई थीं। अब ईगल फिल्म्स ने सीरियल के कलाकारों को लेकर ही उसी कथा पर फिल्म ‘चला मुसद्दी ऑफिस-ऑफिस’ बनाई है। इस तरह का एक प्रयोग ‘खिचड़ी’ के नाम से प्रदर्शित हुआ था। वह भी एक लोकप्रिय सीरियल रहा है।

सरकारी दफ्तरों की लालफीताशाही पर बनी इस फिल्म में पंकज कपूर के अभिनय के कारण इसे देखने की इच्छा होती है। फिल्म में एक पेंशन पाने वाले को गलतफहमी की वजह से मृत मान लिया जाता है और एक जीवित व्यक्ति को अपने जीवित होने का प्रमाण देने के लिए लगभग नर्क समान पीड़ा से गुजरना पड़ता है। इस तरह की व्यथा-कथा लेखक उदयप्रकाश ने अपनी कहानी ‘मोहनदास’ में प्रस्तुत की है। मोहनदास को प्राप्त नौकरी रिश्वत देकर कोई और पा जाता है। बेचारा मोहनदास दर-दर जाकर चीखता है कि वह मोहनदास है, परंतु कोई नहीं सुनता और नकली मोहनदास के किए गए अपराध की सजा असली को मिलती है।

दरअसल आम आदमी के जीवन में दर्द पैदा किया है निर्मम व्यवस्था ने। इस टूटी व्यवस्था की सड़ांध इस कदर वातावरण में व्याप्त हो चुकी है कि दिन में भी सूरज की पूरी रोशनी हमें नहीं मिल पाती।

1 comment:

  1. Satya, U r best poet. Carry on... 'Office-Office ' is my favorite one...

    ReplyDelete