Sunday 3 July 2011

यह कमबख्त फिल्म है मजेदार


आमिर खान की इमरान खान अभिनीत फिल्म ‘देल्ही बैली’ एक मनोरंजक हास्य फिल्म है। तीन युवा दोस्त एक खस्ताहाल किराए के कमरे में अपने बुलंद हौसलों और नन्हे सपनों के साथ रहते हैं और सतही तौर पर वे आलसी, स्वार्थी और बददिमाग लगते हैं, परंतु संकट के समय उनकी दोस्ती का सच्च स्वरूप सामने आता है। जीवन मूल्यों के प्रति इतने सजग हैं कि एक टूटते रिश्ते में सदस्य की जान बचाने के लिए सब कुछ दांव पर लगा देते हैं। यह हिंदुस्तानी सिनेमा की पारंपरिक कथा है और दर्शक भी दोस्तों की दास्तां को पसंद करते हैं, परंतु इसकी बेबाक प्रस्तुति और इसमें प्रयुक्त अत्यंत स्वाभाविक जबान को लेकर उठे बवंडर में असल बात दबी ही रहेगी। यह तो महज फिल्म है, दशकों तक सआदत हसन मंटो का महान साहित्य विवादों की धूल से ढंका रहा है।

मजे की बात यह है कि पलायनवादी सिनेमा से शिकायत करते हुए यथार्थ का आग्रह रखने वाले भी यथार्थ से रूबरू होते ही अपनी हेकड़ी भूल जाते हैं। आज का अनौपचारिक युवा अपनी ऊर्जा को किसी पारंपरिक दिखावे और शालीनता के मुखौटों पर जाया नहीं करना चाहता। वह जिंदगी के बीस ओवर वाले मैच में पांच दिवसीय के तौर-तरीकों को नहीं निभाना चाहता। वह ताबड़तोड़ नतीजे चाहता है। फिल्म में एक काटरूनिस्ट का पात्र है, जो विज्ञापन एजेंसी के अपने अज्ञानी मालिक की बेवजह नुक्ताचीनी करने की आदत से परेशान है कि सात प्रतिशत मुस्कराहट बढ़ाओ और अब इसमें से दो प्रतिशत घटा दो। नायक खोजी पत्रकार बनना चाहता है और उसका साथी कैमरामैन दो तरह के चित्र लेता है - एक अपने लिए और एक प्रकाशन के लिए गोयाकि एक ही सब्जेक्ट में दोनों रूप मौजूद हैं।

सारे पात्र आडंबर के खिलाफ हैं और अपने गुण-दोषों के साथ पूरी ईमानदारी से उजागर होते हैं। इस प्रक्रिया में अगर वे निर्वस्त्र होते हैं तो उन्हें लज्जा का ढोंग भी नहीं करना है। उनके व्यवहार और जबान में कोई पाखंड नहीं है। उन्होंने महानगर की भागमभाग का हिस्सा होते हुए भी अपनी संवेदना नहीं खोई है। एक दोस्त निजी संकट में खतरे के मुंह में अकेले जाना चाहता है, परंतु दोनों दोस्त बिना कुछ कहे खतरे में शामिल हो जाते हैं और निर्देशक ने ऐसे दृश्यों को भी मेलोड्रामाटिक नहीं होने दिया, कोई डबडबाई आंखों का क्लोजअप भी नहीं है।

यह बहुत क्लिनिकल सफाई से गढ़ी फिल्म है, परंतु ‘शिट’ के लिए भी कोई दास्ताने नहीं पहने हैं और इन परस्पर विरोधी-सी दिखने वाली धाराओं से फिल्म की बुनावट की गई है। सच तो यह है कि आज के जीवन की विडंबना है कि परस्पर विरोधी स्वर ही उसका मूल भी है, यही है युवा कांट्रेडिक्शन जो उनकी असल के लिए आकांक्षा का भी प्रतीक है।

फिल्म की नायिका ने बचपन के दोस्त और प्रेमी से शादी की, परंतु पति की हिंसा और संस्कारहीनता के कारण तलाक की प्रक्रिया से गुजर रही है और अपने आहत पौरुषीय दंभ को लिए वह हिंसक उसका पीछा कर रहा है। नायक और इस नायिका के बीच कहां, कैसे प्रेम अंकुरित होता है, यह काबिले तारीफ है। यह प्रेम ऐसा ही अंकुरित हुआ, जैसे पथरीली सड़क पर दो पत्थरों के बीच किंचित-सी जगह पर कोई नन्हीं कोपल उग आए। इस फिल्म में एक और युवा प्रेमी की प्रेमिका विदेश में बस जाने के मोह में एक आप्रवासी अमीरजादे को चुन लेती है और हमारा युवा देवदास उस विफल प्रेम का मानो श्राद्ध करने के लिए सिर मुड़वाकर एक चुडै़ल स्वप्न गीत में अपनी भड़ास निकालता है।

आज का युवा देवदास शराब में नहीं डूबता। सारी फिल्म में एक से बढ़कर एक मजेदार पात्र हैं। इन बिंदास युवा लोगों के कमरे के ठीक ऊपर वाले कमरे में एक उस्ताद अपने शागिर्दो को कथक सिखाते हैं। फिल्म में अपराधियों द्वारा कत्ल होने की स्थिति में जर्जर मकान की छत टूटती है गोयाकि शास्त्रीय शैली सीधे जाकर ‘पॉप’ के सिर पर गिरी और इसी कारण जान बच गई। इस फिल्म में ढेरों हास्य प्रसंग इसी तरह रचे गए हैं। श्रीलाल शुक्ल आज ‘राग दरबारी’ को महानगर लाते तो ऐसी ही रचना होती। मंटो भी शायद अपने शताब्दी वर्ष में ऐसी ही शरारत रचते।

बहरहाल इस फिल्म में डायरिया पीड़ित युवा का मल(शिट) पैथोलॉजिकल लैब की जगह हीरों के पैकेट के रूप में अपराधी के पास पहुंचता है और नए किस्म का ‘मलयुद्ध’ प्रारंभ होता है। पूरी फिल्म में शिट इत्यादि का जमकर प्रयोग हुआ है। एक तरफ हमारे सिनेमा में द्विअर्थी संवादों की भरमार है और शालीनता का मखमली परदा उसे और अधिक घिनौना बनाता है तो दूसरी तरफ यह फिल्म है, जिसमें दबा-छिपाकर कोई बात नहीं की गई है - ‘शिट’ के बारे में यह साफगोई की तारीफ करनी होगी। आजकल बात-बात में लोग ‘शिट’ बोलते हैं और कोई बुरा भी नहीं मानता।

साहित्य में जेम्स जॉयस की ‘यूलिसिस’ में इस जुमले पर भी एतराज उठाया गया था कि ‘स्मॉल एंड बिग पीसेज ऑफ टर्डस इन पूल और यूरिन रिमाइंड मी ऑफ कांटिनेंट्स..’ जज नूल्से का फैसला था कि रचना के समग्र प्रभाव को देखना चाहिए, न कि उसके किसी अंग को देखकर एतराज करना चाहिए। इस फिल्म का समग्र प्रभाव एक हास्य फिल्म का है और अपने औघड़पन पर भी हंसा जा सकता है। इसे देखकर आपके मुंह से ‘ओ शिट’ निकल सकता है, परंतु यह विरेचन का प्रभाव है। भविष्य में यह कुंदनशाह की ‘जाने भी दो यारो’ की तरह कल्ट फिल्म साबित होगी।

No comments:

Post a Comment