Monday, 11 July 2011

एक दृष्टि से भय की सिहरन पैदा कर देते थे निळू फुले..


आज राष्ट्र के हर क्षेत्र में कैंसर की तरह फैले भ्रष्टाचार के खिलाफ जगह-जगह से आवाजें उठ रही हैं और इसकी नारेबाजी के द्वारा कुछ लोग सत्ता के सिंहगढ़ में घुसने का प्रयास भी कर रहे हैं, परन्तु नीलकंठ फुले ने 1957 के चुनाव में ही इसके खिलाफ नुक्कड़ नाटक किए थे।

महाराष्ट्र में शक्कर उद्योग से जुड़े राजनीतिक माफिया के सिनेमा और नाटकों में हुए प्रस्तुतीकरणों में नीलू फुले ने बतौर खलनायक, कमाल की भूमिका निभाई थी। महेश भट्ट की ‘सारांश’ में तो उन्होंने ऐसे भय पैदा किए कि रूह कांप जाए।

नीलू फुले द्वारा प्रस्तुत खलनायक कभी भी गब्बर की तरह बड़बोला या मोगाम्बो की तरह चीखने वाला नहीं होता था, परन्तु संवाद और शारीरिक हरकतों में बला की किफायत के साथ भय का संचार करता था। वह मात्र एक दृष्टि से किसी को जड़ कर सकता था। उनकी अदाएगी से लगता था, मानो वह न्यूयार्क की उस संस्था से प्रशिक्षित अभिनेता हों, जिससे मार्लिन ब्रेंडो, टॉम क्रूज निकले, परन्तु उनकी दीक्षा तो महाराष्ट्र के गांवों में धूल फांकते हुए लोकनाटक में हुई थी।

इन गांवों के चौपाल में अशिक्षित ग्रामीण लोगों की रोजमर्रा की बातचीत में समाज का सत्य ध्वनित होता है और नाटकों के बीज मौजूद होते हैं। नीलू फुले का ‘कथा अकेलाच्या कन्दीयाचि’ के २क्क्क् से ज्यादा प्रदर्शन हुए हैं।

1972 में पहली बार मंचित विजय तेंदुलकर के नाटक ‘सखाराम बाइंडर’ में केंद्रीय भूमिका नीलू फुले ने कुछ इस अंदाज से प्रस्तुत की कि आज भी इस नाटक को पढ़ते समय उनकी स्मृति कौंध जाती है। जबकि बाद की प्रस्तुतियों में अनके कलाकारों ने यह भूमिका अभिनीत की है।

मनमोहन देसाई की फिल्म ‘कुली’ में नीलू फुले ने अमिताभ बच्चन के साथ एक दृश्य किया था, जिसकी स्मृति से बच्चन महोदय कभी मुक्त नहीं हो पाए। उस दृश्य में मृत्यु के पूर्वाभास को महसूस करते हुए नीलू फुले मात्र इतना ही कहते हैं, ‘मी जातो’ और मृत्यु सर्वत्र छाई सी महसूस होती है। उन्होंने ‘सिंहासन’, ‘सामना’, ‘जैत रे जैत’,‘रामनगरी’, ‘सारांश’ इत्यादि लगभग 60 फिल्मों में अभिनय किया। वे महात्मा ज्योतिबा फुले के वंशज थे। 13 जुलाई, 2009 को अठहत्तर वर्ष की आयु में पूना में उनका देहावसान हुआ था।

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