राजेश खन्ना अपने शिखर दिनों में बवासीर की शल्य चिकित्सा के लिए अस्पताल में दाखिल हुए तो उन्हें प्रसन्न करने की होड़ में लगे निर्माता भी अस्पताल में राजेश खन्ना के पास वाले कमरे में दाखिल होना चाहते थे। कुछ का आग्रह था कि रोग हो न हो, उनकी शल्य क्रिया कर दी जाए। उस दौर में मनोरंजन उद्योग में लोग कहते थे ‘ऊपर आका (ईश्वर) नीचे काका (राजेश खन्ना का पुकारता नाम)।’ अमिताभ बच्चन के शिखर काल में भी चमचे थे, परंतु वे ‘काका-काल’ की तरह लाउड और वाचाल नहीं थे।
हर सितारे को अपने मिजाज के अनुरूप चमचे मिल जाते हैं, क्योंकि चाटुकारिता की कौम में लचीलापन होता है। दरबार में कौन कितना अधिक झुककर आदाब बजा लेता है, उस पर ही उसका कॅरियर निर्भर करता है। जी हां, चाटुकारिता एक फलता-फूलता कॅरियर होता है, परंतु दुर्भाग्यवश किसी संस्थान में इसका प्रशिक्षण नहीं होता, इसका पाठ्यक्रम ही नहीं है। इस विधा के किसी पारंगत ने अपने अनुभवों पर कोई किताब नहीं लिखी। यह कितना अजीब है कि इतनी पुरानी विधा पर कोई शास्त्र नहीं है।
राजा-महाराजा और बादशाहों के दरबारों में कालीन के साथ बिछे रहे हैं ये लोग, परंतु इनका कोई इतिहास नहीं है। अफसोस कि भारतीय विश्वविद्यालय डॉक्टरेट देने के लिए इतने तत्पर रहे हैं कि पचास किताबों की बेतरतीब कतरनें चिपका देने वालों को भी नवाजा गया है, परंतु इस अभिनव विधा के अध्ययन के लिए उन्होंने कभी पहल नहीं की, जबकि उनके क्षेत्र में चमचागिरी के इतने कीर्तिमान हैं कि कड़छागिरी नामक शब्द का प्रयोग भी किया गया है।
चाटुकारिता इतना पतला घोल है कि कभी-कभी ये सच्चे प्रशंसक की सोच में भी सेंध लगा देता है और वह समझ ही नहीं पाता कि कब उसके दिल में बसी प्रशंसा में यह कालिख लग गई। मसलन करण जौहर काबिल, समझदार व्यक्ति हैं और शाहरुख के सच्चे प्रशंसक तथा हितैषी हैं परंतु ‘माय नेम इज खान’ रचते समय उनका अपना यह विश्वास कि उनके जीवन में शाहरुख ईश्वर की तरह उभरे, उनकी पटकथा में घुस गया और नायक को उन्होंने ईश्वर की छवि में प्रस्तुत कर दिया। सच तो यह है कि करण जौहर और शाहरुख की दोस्ती ऐसी है कि कोई चाटुकारिता की आवश्यकता ही नहीं है।
यह अत्यंत महीन-सा घोल जाने कैसे रक्त में ही मिल जाता है और किसी पैथोलॉजिकल परीक्षण में नजर नहीं आता।यह भी गौरतलब है कि एक ही सितारे के कॅरियर के अलग-अलग उतार-चढ़ाव के अवसरों पर चमचों के रूप-रंग भी बदले हैं, दरअसल गिरगिट को अभी इनसे सीखने में सदियां लगेंगी। अमिताभ बच्चन के दरबार में नमूनों का संग्रहालय है। सितारों के चमचे किताबें भी लिख लेते हैं। कुछ तो अपने फन में इतने माहिर होते हैं कि शान में शायरी करने लगते हैं।
राजनीति के क्षेत्र में चाटुकारिता के लिए बड़ा गरिमामयी शब्द प्रयोग किया जाता है, उन्हें लॉयलिस्ट कहते हैं। किसी व्यक्ति या विचारधारा के प्रति समर्पित होना सद्गुण माना जाता है और एक ही वंश की हर पीढ़ी को नवाजने को वफादारी माना जाता है। परंतु एक पलड़े में लॉयल्टी है तो दूसरे में स्वयं का विवेक और स्वतंत्र विचार शैली, भक्ति की निरंतरता या अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व। यह लॉयल्टी का मामला बहुत गहरा है।
भीष्म पितामह सिंहासन के प्रति समर्पित थे तो उन्हें द्रोपदी का चीरहरण देखना पड़ा, असत्य पक्ष की ओर से युद्ध करना पड़ा और भाग्य की विडंबना देखिए कि स्वयं विवेक और तर्कसम्मत पथ को छोड़ने के कारण वे अपने सिंहासन और प्रिय वंश को ही नहीं बचा पाए। अगर उनकी प्रतिबद्धता आम आदमी, जो हर देश का सार होता है, एकमात्र सत्य होता है, के प्रति होती तो युद्ध नहीं होता। मौजूदा सांसद, मुख्यमंत्री और हुक्मरान जाने किस कुर्सी के प्रति शपथबद्ध हैं, परंतु आम आदमी को वे पहले ही खारिज कर चुके हैं। सारी व्यवस्थाओं का उद्देश्य आम आदमी की खुशहाली है या होना चाहिए।
आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए, परंतु सुख का अर्थ रोटी, कपड़ा, मकान में सीमित नहीं है। सुख का अर्थ स्वतंत्रता है, तर्कसम्मत जीवन की सुविधा, विचार करना और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कितने नेता यह महसूस करते हैं कि मूर्ख वफादारों की फौज से बेहतर हैं निर्भीक विचार व्यक्त करने वाले विरोधी।
चाटुकारिता के अलिखित इतिहास में दर्ज है कि चाटुकारों ने कितनों की लुटिया डुबाई है, कितनी मानवीय त्रासदियां जी-हुजूरी की वजह से घटित हुई हैं। सूर्य उदय के पहले ही उसका यशोगान और जोर-शोर से दुंदुभी बजाने के कारण किसी दिन वह उदय होने से इनकार कर सकता है।
हर सितारे को अपने मिजाज के अनुरूप चमचे मिल जाते हैं, क्योंकि चाटुकारिता की कौम में लचीलापन होता है। दरबार में कौन कितना अधिक झुककर आदाब बजा लेता है, उस पर ही उसका कॅरियर निर्भर करता है। जी हां, चाटुकारिता एक फलता-फूलता कॅरियर होता है, परंतु दुर्भाग्यवश किसी संस्थान में इसका प्रशिक्षण नहीं होता, इसका पाठ्यक्रम ही नहीं है। इस विधा के किसी पारंगत ने अपने अनुभवों पर कोई किताब नहीं लिखी। यह कितना अजीब है कि इतनी पुरानी विधा पर कोई शास्त्र नहीं है।
राजा-महाराजा और बादशाहों के दरबारों में कालीन के साथ बिछे रहे हैं ये लोग, परंतु इनका कोई इतिहास नहीं है। अफसोस कि भारतीय विश्वविद्यालय डॉक्टरेट देने के लिए इतने तत्पर रहे हैं कि पचास किताबों की बेतरतीब कतरनें चिपका देने वालों को भी नवाजा गया है, परंतु इस अभिनव विधा के अध्ययन के लिए उन्होंने कभी पहल नहीं की, जबकि उनके क्षेत्र में चमचागिरी के इतने कीर्तिमान हैं कि कड़छागिरी नामक शब्द का प्रयोग भी किया गया है।
चाटुकारिता इतना पतला घोल है कि कभी-कभी ये सच्चे प्रशंसक की सोच में भी सेंध लगा देता है और वह समझ ही नहीं पाता कि कब उसके दिल में बसी प्रशंसा में यह कालिख लग गई। मसलन करण जौहर काबिल, समझदार व्यक्ति हैं और शाहरुख के सच्चे प्रशंसक तथा हितैषी हैं परंतु ‘माय नेम इज खान’ रचते समय उनका अपना यह विश्वास कि उनके जीवन में शाहरुख ईश्वर की तरह उभरे, उनकी पटकथा में घुस गया और नायक को उन्होंने ईश्वर की छवि में प्रस्तुत कर दिया। सच तो यह है कि करण जौहर और शाहरुख की दोस्ती ऐसी है कि कोई चाटुकारिता की आवश्यकता ही नहीं है।
यह अत्यंत महीन-सा घोल जाने कैसे रक्त में ही मिल जाता है और किसी पैथोलॉजिकल परीक्षण में नजर नहीं आता।यह भी गौरतलब है कि एक ही सितारे के कॅरियर के अलग-अलग उतार-चढ़ाव के अवसरों पर चमचों के रूप-रंग भी बदले हैं, दरअसल गिरगिट को अभी इनसे सीखने में सदियां लगेंगी। अमिताभ बच्चन के दरबार में नमूनों का संग्रहालय है। सितारों के चमचे किताबें भी लिख लेते हैं। कुछ तो अपने फन में इतने माहिर होते हैं कि शान में शायरी करने लगते हैं।
राजनीति के क्षेत्र में चाटुकारिता के लिए बड़ा गरिमामयी शब्द प्रयोग किया जाता है, उन्हें लॉयलिस्ट कहते हैं। किसी व्यक्ति या विचारधारा के प्रति समर्पित होना सद्गुण माना जाता है और एक ही वंश की हर पीढ़ी को नवाजने को वफादारी माना जाता है। परंतु एक पलड़े में लॉयल्टी है तो दूसरे में स्वयं का विवेक और स्वतंत्र विचार शैली, भक्ति की निरंतरता या अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व। यह लॉयल्टी का मामला बहुत गहरा है।
भीष्म पितामह सिंहासन के प्रति समर्पित थे तो उन्हें द्रोपदी का चीरहरण देखना पड़ा, असत्य पक्ष की ओर से युद्ध करना पड़ा और भाग्य की विडंबना देखिए कि स्वयं विवेक और तर्कसम्मत पथ को छोड़ने के कारण वे अपने सिंहासन और प्रिय वंश को ही नहीं बचा पाए। अगर उनकी प्रतिबद्धता आम आदमी, जो हर देश का सार होता है, एकमात्र सत्य होता है, के प्रति होती तो युद्ध नहीं होता। मौजूदा सांसद, मुख्यमंत्री और हुक्मरान जाने किस कुर्सी के प्रति शपथबद्ध हैं, परंतु आम आदमी को वे पहले ही खारिज कर चुके हैं। सारी व्यवस्थाओं का उद्देश्य आम आदमी की खुशहाली है या होना चाहिए।
आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान चाहिए, परंतु सुख का अर्थ रोटी, कपड़ा, मकान में सीमित नहीं है। सुख का अर्थ स्वतंत्रता है, तर्कसम्मत जीवन की सुविधा, विचार करना और उनकी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। कितने नेता यह महसूस करते हैं कि मूर्ख वफादारों की फौज से बेहतर हैं निर्भीक विचार व्यक्त करने वाले विरोधी।
चाटुकारिता के अलिखित इतिहास में दर्ज है कि चाटुकारों ने कितनों की लुटिया डुबाई है, कितनी मानवीय त्रासदियां जी-हुजूरी की वजह से घटित हुई हैं। सूर्य उदय के पहले ही उसका यशोगान और जोर-शोर से दुंदुभी बजाने के कारण किसी दिन वह उदय होने से इनकार कर सकता है।
No comments:
Post a Comment