Saturday 23 April 2011

हम ‘नहीं’ कहने के अभ्यस्त नहीं


ऋषि कपूर को गीतकार जयदीप मुखर्जी ने बताया कि रोहन सिप्पी की फिल्म ‘दम मारो दम’ में उनका लिखा ‘पोरी पोरी’ वाला गीत किसी और स्थिति के लिए लिखवाया गया था, परंतु टाइटिल गीत में इस्तेमाल किया गया। इस तरह के शब्द कभी भी किसी भी स्थिति के लिए नहीं लिखे जाने चाहिए और गीतकार अपने बचाव में कहते हैं कि निर्माता का दबाव था।



यह दबाव कभी निदा फाजली, गुलजार और जावेद अख्तर पर क्यों नहीं डाला गया? जावेद साहब ने तो पलक झपकाई थी-‘दर्दे डिस्को’ के समय। बहरहाल शैलेंद्र, साहिर और शकील तो कभी दबाव में नहीं आए। कामयाबी का कारवां आंखों के सामने से गुजरते हुए देखकर भी नीरज तो कभी नहीं झुके। दरअसल प्राय: हमसे किसी भी प्रस्ताव को सुनकर ‘नहीं’ कहने का साहस नहीं होता और हम दिखावे की मजबूरी में कहते हैं कि क्या करें हम आग्रह के कच्चे हैं और किसी का दिल नहीं दुखाना चाहते।



दरअसल हम अपनी सुविधा की कोठरी को ठेस नहीं पहुंचाना चाहते। अमिताभ बच्चन जैसे सफल सशक्त सितारे ने ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है’ ठुमके लगाकर निभाया और बचाव यह कि हमारे यूपी का लोकगीत है, सो भय्ये ‘सिपहिया’ और ‘जुबना का उभार’ भी लोकगीत हैं।



दिलीप कुमार ने जितनी फिल्में अभिनीत कीं, उससे तिगुनी अस्वीकार की हैं। व्यक्तित्व में लोहे का आकलन स्वीकृत प्रस्ताव नहीं वरन् अस्वीकृत के आधार पर किया जाता है। वर्धा के आश्रम में महात्मा गांधी के पास हिटलर का नुमाइंदा आया था और जर्मनी तथा भारत के बैरी ब्रिटेन के खिलाफ जाने की बात थी, परंतु महात्मा गांधी ने मानवता के दुश्मन हिंसक हिटलर की मात्र शाब्दिक हिमायत से भी इनकार कर दिया। अपने एक आंदोलन में हिंसा के प्रयोग के कारण सफलता की कगार पर पहुंचे आंदोलन को वापस ले लिया।



आपातकाल की भरी दोपहरी में इंदिराजी के गोएबल्स विद्याचरण शुक्ल के लिए दिल्ली जाकर गाना गाने से किशोर कुमार ने इनकार कर दिया और झुकने को कहने पर लेट जाने वाले रीढ़हीन अफसरों ने विविध भारती पर किशोर के गीत बंद कर दिए। बांग्लादेश की समस्या के समय अमेरिका में इंदिराजी ने शक्तिशाली अमेरिकन प्रेसीडेंट को नहीं कह दिया और सेवंथ फ्लीट के आगमन की धमकी के बावजूद बांग्लादेश को स्वतंत्र करा दिया। उनके इस साहस की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने पर अटलबिहारी बाजपेयी को अपने दल की भत्र्सना सहनी पड़ी और अगर उस समय अटलजी निंदकों को नहीं कह देते तो भारतीय राजनीति का इतिहास ही बदल जाता।



यह ‘नहीं’ न कह पाना और नापसंद बात पर सहमति जताना अंततोगत्वा बहुत महंगा साबित होता है। यथार्थ जीवन में हम अपने टूटने के लिए अनेक आदर्श बहाने खोज लेते हैं। यह ‘नहीं’ न कह पाने की यातना स्त्रियों को पुरुषों से अधिक झेलनी पड़ती है और भयावह बात यह है कि उनके मौन को स्वीकृति मानने का मजबूत भरम भी रच दिया गया है। बीबीसी पर लंबे समय तक ‘यस मिनिस्टर’ कार्यक्रम चला है जिसकी नकल हमने भी की है।



अफसर ‘हां हां’ कहकर किस तरह मंत्रीजी को मूर्ख बनाते हैं, यह हम सदियों से भुगत रहे हैं। पहले चक्रवर्ती सूर्यवंशियों और चंद्रवंशियों के दरबार में ‘हां’ की, फिर बादशाहों के यहां आदाब बजाया। दरबार बदलते रहे, हम नहीं बदले-बस ये ही हमारी ‘नहीं’ है।

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