Saturday 23 April 2011

बदलते हुए समाज में सेंसर की भूमिका

साठ वर्षीय भरतनाटच्यम की महान कलाकार श्रीमती लीला सैमसन को सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया गया है और इस पद पर शर्मिला टैगोर का कार्यकाल इसी माह समाप्त हुआ। ज्ञातव्य है कि विगत कई सप्ताह से सरकार इस पद के लिए व्यक्ति खोज रही थी और अनेक लोगों ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत कर दिया था, मसलन ‘शोले’ के निर्देशक रमेश सिप्पी ने कहा कि वे फिल्म उद्योग की अपनी संस्था के अध्यक्ष हैं, इसलिए सेंसर का पद स्वीकार नहीं कर सकते।

कुछ निर्माताओं को एतराज है कि श्रीमती लीला सैमसन को फिल्म का कोई ज्ञान नहीं है और शायद उन्होंने बतौर दर्शक भी अत्यंत कम फिल्में देखी हैं।



दरअसल अध्यक्ष का पद मात्र सम्मान का पद है, वह स्वयं कभी फिल्म नहीं देखता और सेंसर प्रमाण-पत्र पर भी क्षेत्रीय अधिकारी के हस्ताक्षर होते हैं। सेंसर द्वारा मनोनीत दर्जन भर लोग जो अलग-अलग व्यवसायों से आए हैं, फिल्म देखकर अपनी सिफारिश भेजते हैं, जिनके आधार पर अधिकारी तय करता है कि क्या काटना है, क्या दिखाना है और इस पूरी मंडली में कोई भी फिल्म कला या तकनीक का जानकार नहीं होता।



कई बार निर्जीव नियम के अधीन कोई अंश हटाकर पूरे दृश्य का अर्थ बदल देते हैं। संदर्भ बदल जाने पर एक शालीन-सा दृश्य अश्लील हो जाता है। जिन निर्माताओं ने कट अस्वीकार करके अपील की है, उन अधिकांश निर्माताओं की फिल्मों को अपीलेट बोर्ड ने निर्बाध प्रदर्शन की इजाजत दी है।



अश्लीलता के आरोप आज तक किसी अदालत में दंडित नहीं हुए हैं। सिनेमा ही नहीं, साहित्य के मामले में भी अदालतों ने सभी को ससम्मान स्वतंत्र किया है। इस तरह का पहला मुकदमा राजा रवि वर्मा की पेंटिंग्स पर कायम हुआ था और उन्हें अभद्र नहीं माना गया। इंडियन पैनल कोड सेक्शन 292, 293 और 294 में इसकी व्याख्या करते हुए वेबस्टर-3 के पृष्ठ 1557 का हवाला दिया है। गोयाकि अश्लीलता की अंग्रेजों की विक्टोरियन परिभाष हमें मान्य है।



दरअसल अश्लीलता कहीं भी स्पष्ट परिभाषित नहीं है। सारा कानूनी खेल उलझा हुआ है, मसलन कमतर पोशाक में प्रस्तुत कैबरे उस समय तक अश्लील नहीं माना जाता, जब तक दाम चुकाने वाले ग्राहक अपने दिमाग पर पड़े बुरे प्रभाव की कानूनी शिकायत नहीं करें। शायद नियम बनाने वाले जानते थे कि सारा एतराज मुफ्त देखने वाले व्यवसायी हुल्लड़बाजी ही करते हैं।



प्राइवेट चैनल आने के बाद टेलीविजन पर दिखाया जाने वाला कार्यक्रम सेंसर से मुक्त है, अत: मनोरंजन के दोनों माध्यमों के लिए अलग नियमावली क्यों बनाई गई है। देश मंे टुच्ची राजनीति की दखलंदाजी से बनी लचर कानून व्यवस्था के कारण पनपी क्षेत्रीय और मोहल्लाई हुल्लड़बाजी सेंसर के ऊपर सेंसर का काम करती है। कई प्रमाणित फिल्में कुछ क्षेत्रों में आज तक नहीं दिखाई गईं, मसलन ‘जोधा अकबर’ राजस्थान में और ‘फना’ गुजरात में नहीं दिखाई जा सकीं। कुछ ठाकुर बाहुल्य राज्यों में राज कपूर की ‘प्रेमरोग’ नहीं दिखाई गई। दरअसल नित-नई टेक्नोलॉजी में नई नियमावली बनाई जानी चाहिए और फिल्म शास्त्र में प्रशिक्षित सदस्य इसे देखें। बेचारी लीला सैमसन को अफसरशाही से ग्रसित संस्था में बैठना होगा।

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