Monday 6 June 2011

मसाला तर्कहीनता के पीछे की योजना


व्यावसायिक सिनेमा की आत्मा का पंछी बॉक्स ऑफिस में कैद होता है और इस माध्यम पर इतना अधिक धन खर्च होता है कि अधिकतम दर्शकों के सहयोग के बिना इसका अस्तित्व ही खतरे में पड़ सकता है। हर दर्शक की व्यक्तिगत पसंद-नापसंद और पूर्वग्रह के स्थापित तथ्य के कारण सामूहिक पसंद का आकलन असंभव है। हर फिल्मकार दर्शक से भावनात्मक तादात्म्य के लिए प्रयास करता है और लोकप्रियता के रहस्यमय रसायन की कीमिया खोजना चाहता है। इसका कोई एक फॉमरूला नहीं है और अनेक दिशाओं में हाथ-पैर मारे जाते हैं, गोयाकि डूबता हुआ आदमी तिनके का सहारा खोजता है।

अनीज बज्मी की ‘रेडी’ में नायिका फेरे लेते समय नायक से कहती है कि फेरे अधूरे छोड़कर अपने पिता की रक्षा के लिए जाओ, क्योंकि पत्नी कभी भी मिल सकती है, परंतु पिता जीवन में एक बार ही मिलता है। यह संवाद एक महिला दर्शक को बहुत अच्छा लगा और उसे मैंने यह कहते हुए सुना। दर्शक की प्रतिक्रिया में बहुत से तथ्य प्राप्त होते हैं। यह पत्नी-पिता की बात सलीम साहब प्राय: करते हैं और सलमान खान के माध्यम से अनीस बज्मी तक पहुंची होगी।

‘रेडी’ की सफलता अनायास नहीं है। इस मसाला फिल्म में परिवार की भावना और प्रेम के महत्व को प्रस्तुत किया गया है और एक दृश्य में नायक फूलों के गुलदस्ते से प्रहार करता है और पिटने वाले की प्रतिक्रिया है, मानो पत्थर से प्रहार हुआ हो। अगले ही शॉट में हाथ में गुलाब लिए एक प्रहार खलनायक के होश उड़ा देता है। यह एक हास्य दृश्य है। दरअसल ‘नो एंट्री’, ‘वांटेड’ और ‘दबंग’ के बाद इस फिल्म की रचना के समय सूरज बड़जात्या की फिल्मों की पारिवारिकता का हल्का-सा स्पर्श इसमें प्रस्तुत किया गया है। यहां तक कि नायक का नाम भी प्रेम है, जो सूरज की सभी फिल्मों में सलमान के लिए उन्होंने तय किया था, गोयाकि मारधाड़ की मसाला फिल्म में ‘प्रेम’ की वापसी एक सोची-समझी पहल है। क्या परोक्ष रूप से यह संकेत नहीं है कि मौजूदा मौज-मस्ती और हल्के मनोरंजन के दौर में ‘प्रेम’ और ‘पारिवारिकता’ का केवल तड़का ही लगाया जा सकता है? इसकी पुष्टि भी इस बात से होती है कि सूरज का अपना फॉमरूला विगत वर्षो में असफल रहा है। गोयाकि बुझी राख से अनीस ने एक चिंगारी निकाली और अपना तंदूर गरमा लिया।

सलीम-जावेद ने ‘दीवार’ में कुली के बिल्ले को उसके अच्छे भाग्य का प्रतीक बनाया- नंबर ७८६ धर्म से जुड़ा है। बरसों बाद यशराज बैनर की ‘वीर जारा’ फिल्म में पाकिस्तान की सहृदय वकील साहिबा रानी मुखर्जी जेलर से कहती हैं कि बेअदब इंसान क्या तुमने सोचा है कि इस निरपराध हिंदुस्तानी को कैदी नं. ७८६ किस निजाम के तहत मिला है। यह कैसा संकेत है? अधिकतम की भावुकता को झंकृत करने के ऐसे सभी प्रयास सोचे-समझे खेल ही होते हैं।

आमिर खान की आशुतोष गोवारीकर रचित ‘लगान’ में दलित जाति के पोलियोग्रस्त युवा की गेंद स्वाभाविक रूप से स्पिन करती है और उसके टीम में चयन के जातिवादी पूर्वग्रह के खिलाफ नायक उठ खड़ा होता है। ‘प्रेमरोग’ में संकीर्णता से ग्रस्त व्यक्ति मर गया और उसकी आंख बंद करते समय संवाद है कि वक्त रहते आंख खुल जाती तो यह अनर्थ नहीं होता। ‘राम तेरी गंगा मैली’ में भ्रष्ट नेता अपने होने वाले दामाद से पूछता है कि बनारस से तुम्हारे लिए क्या भेंट लाऊं।

पहाड़ी लड़की के प्रेम में तल्लीन नायक कहता है, ‘हो सके तो गंगा ले आना’ और अनजाने ही भ्रष्ट नेता कोठे से गंगा नामक लड़की को ले आता है, जो उसके पैरों के नीचे से कालीन ही खींचने का माध्यम बनती है।

‘मुगल-ए-आजम’ में शहंशाह के न्याय की तराजू पर वर्षो पूर्व उसके द्वारा एक ‘नाचीज बांदी’ को वादे के स्वरूप दी गई अंगूठी पलड़े को झुका देती है और एक शक्तिशाली बादशाह कितना कमजोर और निरीह हो जाता है।

सारांश यह है कि मसाला और तर्कहीन फिल्मों को गढ़ने के पीछे एक बहुत ही सुलझी विचार शैली है जो विचार के तमाम आयामों के साथ भावनात्मक कमजोरियों को भी भुनाना जानती है। सामूहिक भावना को उभारना या कमजोर नस पर हाथ रखना आसान नहीं है। जो काम फिल्मकार मनोरंजन गढ़ने के लिए करते हैं, वही काम नेता और धर्म के मठाधीश भी अत्यंत चतुराई से करते हैं। अंतर केवल एक उद्देश्य का है। एक पैसा बना रहा है, दूसरा सत्ता चाहता है। बेचारे आम आदमी को मालूम ही नहीं कि उसकी भावना का दोहन कौन, कब और क्यों करता है।

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