Friday 17 June 2011

आम आदमी का फ्राय होता भेजा


टेक्नोलॉजी के भरपूर दोहन के लिए आजकल सुपरहीरो या तर्क के परे के एक्शन नायक की फिल्में बनाई जाती हैं और आम आदमी को नायक के रूप में लेकर कम फिल्में बनती हैं, क्योंकि प्रमुख दर्शक वर्ग हर उम्र के बच्चों का है। सागर बेल्लारी की ‘भेजा फ्राय 2’ का नायक साधारण आम आदमी है, जिसने अपनी मासूमियत और मूल्यों की हमेशा रक्षा की है तथा वह पुराने फिल्मी गीतों को सदैव गुनगुनाता रहता है तथा महान संगीतकारों के जीवन की जानकारियों के आधार पर उसने अपने बैंक अकाउंट इत्यादि के अंक चुने हैं।

फिल्मकार के मन में पुराने फिल्म माधुर्य के लिए बहुत आदर है और शायद अनचाहे ही उसने माधुर्य और मासूमियत तथा मूल्यों को जोड़ दिया है। सिनेमा के संगीत स्वर्णयुग में प्रतिभाशाली संगीतकारों की धुनों के लिए सार्थक शब्द रचने वाले गीतकारों ने भी माधुर्य और मासूमियत को खूब बढ़ाया है। उस स्वर्णकाल में रचे गीतों को आज तक गुनगुनाने के लिए दिल में सादगी की आवश्यकता है। कोई कपटी आदमी कैसे दोहराएगा ‘किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार.., जीना इसी का नाम है’ या ‘सबकुछ सीखा हमने, न सीखी होशियारी। सच है दुनियावालों कि हम हैं अनाड़ी’ या ‘हर फिक्र को धुएं में उड़ाता चला गया।’ उस युग में सैकड़ों मधुर गीत रचे गए हैं।

बहरहाल, ‘भेजा फ्राय 2’ का नायक माधुर्य और मूल्यों के प्रति इस कदर समर्पित है कि निर्जन टापू से निकलने के अवसर को ठुकरा देता है क्योंकि वहां उसका एक दोस्त बेहोश पड़ा है। वह अपने लंपट चाचा से भी इतना रुष्ट है कि उनसे स्वयं को बचाने की बात भी नहीं करता। उसे ताउम्र निर्जन टापू में पड़े रहने से भी डर नहीं लगता क्योंकि माधुर्य और मूल्य जिनके पास होते हैं, वे तन्हाई से नहीं डरते। वे एकाकीपन को साध लेते हैं। उन्हें भीड़ की जरूरत नहीं है।

विनय पाठक ने इस भूमिका को जिया है, शायद यथार्थ जीवन में भी वह वैसे ही हैं। फिल्मकार ने इस फिल्म में भाग एक की सहजता को खो दिया है। हास्य भी उतना निर्मल आनंद नहीं देता और श्रेष्ठि समाज का खोखलापन भी बहुत गहराई से उजागर नहीं होता। शायद इसका कारण यह है कि केवल एक सीधी-सी बात कहने के लिए एक लंबा हिस्सा जोड़ा गया है।

एक व्यक्ति टेलीविजन चैनल के आतंक से इतना दुखी है कि वह अपने रेडियो के साथ निर्जन टापू में बस गया है। बात सही भी है और रेडियो- माधुर्य के वहन के प्रति आदरांजलि भी है, परंतु पूरा प्रसंग बहुत लंबा और अस्वाभाविक है। बहरहाल, सुपरहीरो एक्शन फिल्मों के दौर में आम आदमी की बात करना एक तरह से आरके लक्ष्मण को भी आदर देना है।

आज के दौर में आम आदमी को एक निहायत ही भ्रष्ट एवं मूल्यरहित तंत्र से बचाने के लिए भांति-भांति के आंदोलन रचे जा रहे हैं, परंतु 99 प्रतिशत भ्रष्ट जनता के मन को बदलने और उसके जीवन में माधुर्य और मूल्यों की स्थापना का प्रयास नहीं करते हुए बाबा आंबेडकर के द्वारा बनाए गए संविधान को ही बदलने की चेष्टा हो रही है।

गोयाकि लाक्षणिक इलाज करते हुए एक नए तंत्र को बनाने का प्रयास हो रहा है, जिसमें सीबीआई को शामिल करते हुए इस नई संस्था को संसद और न्यायपालिका से भी ऊपर शक्तिशाली बनाने की चेष्टा है। परम शक्तिपुंज परम भ्रष्टाचार को ही जन्म देता है। अपनी गलतियों के भार से दबी सरकार इतनी सुरक्षात्मक हो गई है कि तानाशाही के संभावित उदय होने के खिलाफ भी कुछ नहीं कह पा रही है। आम आदमी खुद इतना भ्रष्ट है कि भीड़ में शामिल होकर अपने अपराध-बोध से छद्म मुक्ति का प्रयास कर रहा है।

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