Tuesday 28 June 2011

भारत से कितनी दूर हैं उसकी फिल्में

दुनिया के तमाम देशों की फिल्मों में वहां के राष्ट्रीय चरित्र की झलक देखने को मिलती है। फिल्मों के माध्यम से भी किसी देश का परिचय पाने की कोशिश की जा सकती है। रॉबर्ट स्कलर की किताब ‘मूवीज मेड ए नेशन’ में हॉलीवुड के विकास के साथ अमेरिका को जोड़ा गया है। आज ईरान की फिल्मों से ईरानी समाज का अच्छा-खासा परिचय हमें मिलता है।

तमाम फिल्म बनाने वाले देशों ने अपने इतिहास और साहित्य से कथाएं ली हैं। अमेरिका ने अपने यहां प्रकाशित कॉमिक्स पर भी फिल्में गढ़ी हैं। अकिरा कुरोसावा की फिल्में जापान की इतिहास कक्षाओं में पढ़ाई जा सकती हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद फ्रांस ने थ्रिलर फॉर्मेट में देशभक्ति की बात प्रस्तुत की। रूसी साहित्य की ‘वार एंड पीस’, ‘डॉ जिवागो’ और ‘क्राइम एंड पनिशमेंट’ पर हॉलीवुड ने फिल्में रची हैं और इन्हीं उपन्यासों पर बनी रूसी फिल्मों से वे बेहतर भी सिद्ध हुई हैं।

इन तमाम देशों में सेंसर के लचीलेपन के कारण भी बहुत सी साहसी फिल्में बनी हैं। मसलन ऑलिवर स्टोन की फिल्मों में वियतनाम में की गई गलती का विवरण है। स्टोन ने वियतनाम में बतौर शिक्षक और बतौर योद्धा भी वक्त बिताया है। उनकी ‘जेएफके’ में निर्भीक ढंग से कैनेडी की हत्या के राज खोले गए हैं।

भारतीय फिल्मों में भारत उजागर नहीं होता। अपवादस्वरूप बनीं कुछ फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश फिल्में यथार्थ से कोसों दूर पलायनवादी फिल्में हैं। किसी भी देश का मनोरंजन उस देश की रुचियों का प्रतिनिधित्व नहीं करे- यह अजीब बात है। हमारे सिनेमा ने समस्याओं का भी फॉमरूला रूप प्रस्तुत किया है। आज देश में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसके विरोध में संविधान के परिवर्तन और अंततोगत्वा अराजकता को नियंत्रित करने के प्रयासों पर भी कोई फिल्म नहीं बन रही है। भ्रष्टाचार पर कुछ फिल्मी प्रयास हुए हैं, परंतु वे इतने सतही हैं कि सरकारी प्रयास लगते हैं।

हमारे यहां किसी भी फिल्मकार के पास ऑलिवर स्टोन की प्रतिबद्धता और साहस नहीं है और यह भी सही है कि भारतीय सेंसर बोर्ड निर्मम, निष्पक्ष यथार्थ प्रस्तुत नहीं करने देता। वह सेक्स और हिंसा के खिलाफ उतना सख्त रवैया नहीं अपनाता, जितना कि सत्य के खिलाफ। उसके चंगुल से बच भी जाएं तो हुड़दंगियों से नहीं बच सकते। राजेंद्र यादव द्वारा अनूदित एवं संपादित पुस्तक ‘नरक ले जाने वाली लिफ्ट’ (राजकमल प्रकाशन) में जैफ्री आर्चर की कहानी ‘खाता नंबर’ का सारांश इस प्रकार है कि भ्रष्टाचार मिटाने के आंदोलन स्वरूप सत्ता में आई पार्टी ने भ्रष्ट लोगों को गिरफ्तार किया।

उनकी संपत्ति जब्त की, परंतु विदेशी बैंकों में जमा धन के बारे में स्विट्जरलैंड से कोई जानकारी उन्हें नहीं मिली। भेष बदलकर वित्तमंत्री एक बड़ा-सा सूटकेस लेकर किसी तरह न केवल स्विस बैंक में जाते हैं, वरन दो प्रमुख अधिकारियों के साथ बंद कमरे में मिलने में सफल भी होते हैं। वे अपना रिवॉल्वर निकालकर अधिकारियों से कहते हैं कि खातों की जानकारी दंे, अन्यथा उन्हें गोली मार देंगे। अपनी जान का जोखिम होते हुए भी शपथबद्ध अधिकारी खातों की जानकारी नहीं देते।

वित्तमंत्री उन्हें गोली मारने के लिए तत्पर हैं, परंतु मौत के सामने भी अधिकारी नहीं डिगते। इस प्रतिबद्धता के सामने झुककर वित्तमंत्री उन्हें अपने पचास लाख डॉलर बैंक में जमा करने को कहते हैं। अब मंत्रीजी पूरी तरह आश्वस्त हैं कि उनका काला धन स्विट्जरलैंड बैंक में सुरक्षित रहेगा। यह सचमुच आश्चर्यजनक है कि यह कथा जैफ्री आर्चर ने लिखी है, शरद जोशी या हरिशंकर परसाई ने नहीं।

आज सारी कवायद कुछ इस तरह लगती है कि मौजूदा भ्रष्ट लोग हमें पसंद नहीं हैं और उनके बदले हम दूसरे भ्रष्ट लोगों को किसी और नाम से सत्ता सौंपना चाहते हैं गोयाकि स्वांग का प्रारूप बदलकर नया स्वांग लाना है। भ्रष्टाचार की जड़ में है नैतिक मूल्यों का पतन और कोई भी आंदोलन उनकी बहाली के बारे में नहीं सोच रहा है। लाक्षणिक उपचार तो हम वर्र्षो से कर रहे हैं।

सत्ता के ठियों के नाम बदलने से क्या होगा? दरअसल भ्रष्टाचार के खिलाफ मुहिम परिवार से प्रारंभ होनी चाहिए, जहां नैतिक मूल्य स्थापित होते हैं। लगभग हर परिवार में कोई न कोई भ्रष्ट है, कुछ मजबूर हैं और कुछ ने सुविधाजनक शॉर्टकट अपनाया है। हर भ्रष्ट का दावा है कि वह परिवार की सुरक्षा के लिए यह कर रहा है। जब राष्ट्र ही नहीं बचेगा तो परिवार का क्या होगा? परिवार में ही जब कोई सदस्य इसका सविनय विरोध करे, तब कुछ उम्मीद बनती है। अब हर आम आदमी को अपने परिवार में नायक बनना होगा, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में भीड़ बनने से कुछ नहीं होगा।

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