Thursday 23 June 2011

काबुलीवाले की वापसी का स्वागत


पृथ्वी थिएर्ट्स में ‘इप्टा’ के रमेश तलवार ने रबींद्रनाथ टैगोर की कहानी ‘काबुलीवाला’ के साथ पाकिस्तान की जाहिदा हिना की कहानी को जोड़कर वर्तमान में अफगानिस्तान की त्रासदी तथा भारत और अफगानिस्तान के ऐतिहासिक व सांस्कृतिक संबंधों को एक नए प्रयोग द्वारा प्रस्तुत किया और अधिकांश दर्शक आंखें पोंछते हुए थिएटर से बाहर आए।

जाहिदा हिना दैनिक भास्कर के लिए नियमित कॉलम लिखती हैं और भास्कर के सौजन्य से ही रमेश तलवार ने उनसे संपर्क स्थापित करके इजाजत ली और इसे प्रस्तुत किया है। मानवीय करुणा तमाम भौगोलिक और राष्ट्रीय सीमाओं से परे जाकर इंसानों के एक-दूसरे से जुड़े होने की उदात्त भावना को प्रस्तुत करती है।

ज्ञातव्य है कि रबींद्रनाथ टैगोर की इस महान कहानी पर बांग्ला और हिंदी भाषा में दो फिल्में बनी हैं। बिमल राय की हिंदी में बनी ‘काबुलीवाला’ में बलराज साहनी ने काबुल से भारत आए पठान की भूमिका निभाई थी। कुछ वर्ष पूर्व आई कबीर खान की अद्भुत फिल्म ‘काबुल एक्सप्रेस’ में भी एक प्रसंग काबुलीवाला की भावना को ही प्रस्तुत करता है, जब एक आतंकवादी को अपने से जुदा हुई बेटी की याद में तड़पते दिखाया गया था।

बहरहाल, रमेश तलवार के प्रयोग में काबुल के पठान की हिंदुस्तानी मानस पुत्री की डॉक्टर पोती आहत अफगानिस्तान में लोगों के जख्मों को ठीक करने के लिए खुद के कोलकाता में फलते-फूलते कॅरियर पर लात मारकर स्वेच्छा से अपनी जान जोखिम में डालकर काबुल जाती है।

बचपन में उसने अपनी दादी और उनके पिता के अफसानों में उस सहृदय पठान के बारे में जाना था और भावना के उसी कर्ज को अदा करने के लिए वह वहां जाती है। टैगोर की ‘काबुलीवाला’ तो कन्या के विवाह के साथ ही समाप्त होती है, परंतु जाहिदा हिना ने उसमें निहित मानवीय करुणा को वर्तमान तक लाया है।

रमेश तलवार ने बहुत ही सूक्ष्म संवेदना के साथ दिखाया है कि कन्या पठान की बारह बरस बाद अपने विवाह के दिन वापसी पर बचपन के स्नेह प्रसंग को भूल चुकी है, परंतु शायद वह समय के नाखून से यादों को कुरेदती है और कमरे में आकर पठान द्वारा छोड़े गए कागज पर उसकी बेटी के पंजों की छाप को देखती है और स्नेह से उस पर हाथ फिराती है।

रिश्ते परतों वाले परांठे की तरह होते हैं। ‘काबुलीवाला वापस आया’ के मध्यांतर के बाद वाले हिस्से में पोती दादी को पत्र लिख रही है, जिसमें अफगानिस्तान पर रूस का कब्जा, तालिबान की मुहिम और फिर अमेरिकी बमबारी के कारण हुए विनाश का वर्णन कर रही है।

शबाना के भाई बाबा आजमी की पत्नी, जो अभिनेत्री ऊषा किरण की पुत्री भी हैं, ने इस भावना को इतनी तीव्रता से प्रस्तुत किया है कि चालीस मिनट के इस भाग में कोई भी क्रिया नहीं होने के बावजूद दर्शक मंत्रमुग्ध रह जाते हैं। आहत अफगानिस्तान की आह कलेजे को मथ डालती है। आश्चर्य की बात है कि रबींद्रनाथ टैगोर की तकरीबन सवा सौ साल पहले लिखी कहानी के एक पात्र की पोती की रचना का पाकिस्तान की जाहिदा हिना ने और मुंबई के रमेश तलवार ने नाट्य रूपांतर किया।

सृजन करने वाले सरहदें नहीं देखते। उनकी निगाह अनंत क्षितिज पर होती है। नजर की सीमा होती है, नजरिया असीमित है। इस प्रस्तुति के लिए रमेश तलवार को प्रेरणा दी बिमल राय की पुत्री रिंकी भट्टाचार्य ने और बलराज साहनी के पुत्र परीक्षित साहनी ने। एक तरह से यह बिमल राय को आदरांजलि भी है। नाटक में फिल्म ‘काबुलीवाला’ के गानों का भी पाश्र्व में प्रयोग हुआ है। सृजन कीसतह पर सतह के भीतर प्रवाहित अनेक धाराओं को महसूस किया जा सकता है।

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