Saturday 4 June 2011

सिनेमा और समाज में अराजकता

हिंदुस्तानी सिनेमा में दूसरे विश्वयुद्ध के समय वस्तुओं के अभाव और कालाबाजारी के उद्भव के साथ शशधर मुखर्जी ने फॉर्मूले का विकास किया, जिसके विविध स्वरूपों में एक है अराजकता का संकेत देना और उसे सामाजिक न्याय के लिए किए गए संघर्ष का मुखौटा देना। अशोक कुमार अभिनीत ‘किस्मत’, ‘संग्राम’ इत्यादि फिल्मों में प्रतिगामी नायक की छवि गढ़ी गई और कोई तीस वर्ष पश्चात सलीम-जावेद ने इसी गुस्सैल, हिंसक नायक की छवि ‘जंजीर’, ‘दीवार’ और ‘त्रिशूल’ में प्रस्तुत की। मीडिया ने इसे आक्रोश की छवि की तरह प्रचारित कर दिया।

गौरतलब यह है कि इन फिल्मों का नायक सामाजिक लड़ाई नहीं लड़ रहा है, वह व्यक्तिगत बदले ले रहा है। इसी बिंदु पर पांचवें-छठे दशक की सामाजिक प्रतिबद्धता भंग होती है। बाद के वर्षों में यही आक्रोश की मुद्रा वाला नायक अराजकता का प्रतीक बन जाता है और ‘शहंशाह’ इत्यादि अनेक फिल्मों में व्यवस्था को तोड़ते हुए सगर्व कहता है कि वह जहां खड़ा है, वही अदालत है और उसके मुंह से निकले शब्द कानून हैं। इस तथाकथित आक्रोश की लहर अमिताभ बच्चन का सितारा करिश्मा घटते ही लोप हो गई।

लगभग दो दशक तक आप्रवासी भारतीय लोगों के कारण डॉलर सिनेमा का बोलबाला रहा, परंतु ‘गजनी’ और ‘वांटेड’ के साथ ठेठ भारतीय फॉर्मूले की वापसी हुई। देखिए किस कदर मासूमियत से अराजकता के रेशे गूंथे जाते हैं। ‘वांटेड’ का नायक गुंडा है, हड्डियां तोड़ता है और कानून के साथ खेलता है। बाद वाले हिस्से में बताया गया कि वह दरअसल पुलिसवाला है और अपराध सरगना की शिनाख्त करके उसे खत्म करने के लिए गुंडा बना था। इसी फॉर्मूले में शामिल है कानून के माखौल के लिए रॉबिनहुड के रेशों को शामिल करना कि नायक अमीरों को लूटकर गरीबों में धन बांटता है।

इस किस्म का पुलिसवाला ‘दबंग’ में मधुर संगीत और ताजगी वाली प्रेम-कथा को जोड़कर विराट सफलता अर्जित करता है। दरअसल, हमारी सड़ांध भरी भ्रष्टï व्यवस्था से जनता इतनी नाराज है कि नियमों और आचार संहिता को तोडऩे वाला हमें सड़ांध के प्रति विरोध करता नजर आता है। सच तो यह है कि तमाम लोग ही इस व्यवस्था को भ्रष्टï करने में लगे रहे हैं। गणतंत्र का यही रूप अनेक देशों में सफल है और ब्रिटेन मेें शताब्दियों ने इसे परखा है और वहां आज भी खरा है, परंतु भारत में यह कलंकित हो गया है।

इतिहासबोध से वंचित बौने लोग सत्ता की ऊंची कुर्सियों पर बैठकर इस आदर्श व्यवस्था का बुरा हाल करते रहे और शायद अनजाने ही उन्होंने अराजकता की पैरवी कर डाली। अफसोस तो इस बात का है कि फिल्म उद्योग ने भी अपने फॉर्मूले में, जिसका मूल उद्देश्य केवल मनोरंजन गढऩा था, अनजाने ही अराजकता की पैरवी कर डाली। अशोक कुमार, अमिताभ बच्चन, रजनीकांत और सलमान खान की सितारा छवि का लाभ लेकर ‘किस्मत’ से ‘दबंग’ तक अराजकता का महीन रेशा आ गया है। सच तो यह है कि सामंतवाद को घुट्टïी में पीने वाला हमारा अवाम भी इस तत्व को पसंद करते हुए हमेशा घोड़े पर सवार किसी चक्रवर्ती सूर्यवंशी, चंद्रवंशी महाराज का इंतजार करता है। फिल्मकार केवल इस पसंद के बॉक्स ऑफिस स्वरूप की खातिर यह करते हैं।

भ्रष्टïाचार के तांडव के कारण अब आमरण अनशन अत्यंत मनोवैज्ञानिक कुशलता से गढ़े जा रहे हैं और मजे की बात यह है कि मांगें ऐसी हैं कि संविधान ही बदलना पड़ेगा। गोयाकि दोषपूर्ण क्रियान्वयन के कारण एक आदर्श को ही नष्टï किए जाने की मांग है। बाबा आंबेडकर जैसे महान व्यक्ति ने अपनी विद्वान टीम के साथ संविधान रचा था। दरअसल नैतिक मूल्यों का अभाव और सांस्कृतिक शून्य की जड़ को फिर अनदेखा करके लाक्षणिक इलाज खोजा जा रहा है।

पूंजीवादी व्यवस्था अपने ढंग और पसंद का अपराध संगठन समानांतर सरकार के रूप में गढ़ती है। अब एक नया नितांत भारतीय स्वरूप उभरा है कि राजनीतिक दोषों के निवारण के लिए संन्यासी मुखौटे का इस्तेमाल हो रहा है। हम यह भी अनदेखा कर रहे हैं कि पड़ोस में धर्म के नाम पर देश चलाने वालों ने देश ही भंग कर दिया है और अब भारत को भी वैसा ही बनाने का षड्यंत्र रचा गया है।

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