अमिताभ बच्चन अरसे बाद फिल्म ‘बुड्ढा! होगा तेरा बाप’ में हास्य के साथ अपनी पुरानी एक्शन छवि में लौट रहे हैं। वे एक निष्णात कलाकार हैं और इस छवि की वापसी के साथ भी न्याय करेंगे। कुछ वर्ष पूर्व उम्र की ढलान पर प्रेम करने की कहानी ‘चीनी कम’ को वे प्रस्तुत कर चुके हैं। हिंदुस्तानी सिनेमा में प्रेम कहानियों से अधिक एक्शन फिल्में बनी हैं और हर कालखंड में एक्शन सितारे रहे हैं। त्रासदी के शहंशाह दिलीप कुमार ने भी ‘आजाद’ और ‘कोहिनूर’ में तलवारबाजी के पैंतरे प्रस्तुत किए हैं और ‘राम और श्याम’ तथा ‘गंगा जमना’ में भी एक्शन कर चुके हैं। धर्म्ेद्र ने भी सभी तरह की भूमिकाएं बखूबी निभाई हैं, परंतु ‘एक्शन’ में लाजवाब रहे हैं।
दरअसल सलीम-जावेद की ‘दीवार’ को भी एक्शन फिल्म मानने की गलती कुछ लोग कर चुके हैं, जबकि फिल्म में एक्शन के मात्र दो दृश्य हैं, परंतु सलीम-जावेद ने हिंसा की सतह के नीचे बहने वाली धारा को कुछ इस तरह गढ़ा है कि एक्शन का भ्रम बना रहता है। कुछ कलाकारों का व्यक्तित्व ऐसा होता है कि वे परदे पर एक्शन में विश्वसनीय लगते हैं। अमिताभ बच्चन निहत्थे ही लड़ने को तत्पर खड़े हों तो भी हिंसक लग सकते थे, जबकि शशि कपूर के हाथ में हथियार होने पर भी वे दर्शक के मन में डर नहीं पैदा कर सकते। उनके हाथ में तलवार भी बांसुरी ही लगती! सितारों का सारा खेल लोकप्रिय छवियों के द्वारा ही संचालित है, परंतु प्रतिभाशाली फिल्मकार छवियों की फिक्र नहीं करते।
मसलन महिपाल जैसे तीसरे दर्जे की एक्शन फिल्म करने वाले को वी.शांताराम ने ‘नवरंग’ में एक कवि की भूमिका दी और नृत्य में प्रवीण गोपीकृष्ण को नायक लेकर सफल फिल्म ‘झनक-झनक पायल बाजे’ भी रची है। दिलीप कुमार द्वारा इंकार किए जाने पर गुरुदत्त ने स्वयं ‘प्यासा’ में नायक की भूमिका की। संजीव कुमार इतने प्रतिभाशाली थे कि वे जया बच्चन के श्वसुर, प्रेमी और पति तथा पिता की भूमिकाएं भी कर चुके हैं।
अमिताभ बच्चन कभी भी सलमान खान की तरह तंदुरुस्त शरीर सौष्ठव वाले नहीं रहे, परंतु एक्शन और हिंसा का भाव सहजता से रच लेते थे और आज सलमान खान की लगातार सफल होती फिल्मों के कारण ही वे हास्य और एक्शन में लौट रहे हैं। यथार्थ जीवन में रजनीकांत बहुत कमजोर से व्यक्ति हंै, परंतु परदे पर सौ-पचास को लिटा देने के दृश्यों में विश्वसनीय लगते हैं। इस समय सबसे अधिक लोकप्रिय रजनीकांत और सलमान खान ही हैं तथा उनकी लोकप्रिय छवियां लगभग एक-सी हैं।
आज के दौर में अमिताभ बच्चन द्वारा तीन दशक पूर्व रचा आक्रोश ही बूढ़ा हो गया है, क्योंकि युवा वर्ग मस्ती मंत्र का जाप करता है और उसने भ्रष्ट व्यवस्था को अपने हित में ही साध लिया है, अत: उसे आक्रोश की जरूरत ही नहीं है। अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत आक्रोश भी उनके अगले चरण (‘शहंशाह’, ‘कुली’ इत्यादि) में अराजकता का प्रतीक हो गया था। समाज में आज मध्यम अवस्था के व्यक्ति और उम्रदराज लोग ही व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश की मुद्रा में हैं। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने भी औसत आयु बढ़ा दी है और पारंपरिक रूप से परिभाषित बुढ़ापा अब दिल्ली की तरह दूर हो गया है।
दरअसल सलीम-जावेद की ‘दीवार’ को भी एक्शन फिल्म मानने की गलती कुछ लोग कर चुके हैं, जबकि फिल्म में एक्शन के मात्र दो दृश्य हैं, परंतु सलीम-जावेद ने हिंसा की सतह के नीचे बहने वाली धारा को कुछ इस तरह गढ़ा है कि एक्शन का भ्रम बना रहता है। कुछ कलाकारों का व्यक्तित्व ऐसा होता है कि वे परदे पर एक्शन में विश्वसनीय लगते हैं। अमिताभ बच्चन निहत्थे ही लड़ने को तत्पर खड़े हों तो भी हिंसक लग सकते थे, जबकि शशि कपूर के हाथ में हथियार होने पर भी वे दर्शक के मन में डर नहीं पैदा कर सकते। उनके हाथ में तलवार भी बांसुरी ही लगती! सितारों का सारा खेल लोकप्रिय छवियों के द्वारा ही संचालित है, परंतु प्रतिभाशाली फिल्मकार छवियों की फिक्र नहीं करते।
मसलन महिपाल जैसे तीसरे दर्जे की एक्शन फिल्म करने वाले को वी.शांताराम ने ‘नवरंग’ में एक कवि की भूमिका दी और नृत्य में प्रवीण गोपीकृष्ण को नायक लेकर सफल फिल्म ‘झनक-झनक पायल बाजे’ भी रची है। दिलीप कुमार द्वारा इंकार किए जाने पर गुरुदत्त ने स्वयं ‘प्यासा’ में नायक की भूमिका की। संजीव कुमार इतने प्रतिभाशाली थे कि वे जया बच्चन के श्वसुर, प्रेमी और पति तथा पिता की भूमिकाएं भी कर चुके हैं।
अमिताभ बच्चन कभी भी सलमान खान की तरह तंदुरुस्त शरीर सौष्ठव वाले नहीं रहे, परंतु एक्शन और हिंसा का भाव सहजता से रच लेते थे और आज सलमान खान की लगातार सफल होती फिल्मों के कारण ही वे हास्य और एक्शन में लौट रहे हैं। यथार्थ जीवन में रजनीकांत बहुत कमजोर से व्यक्ति हंै, परंतु परदे पर सौ-पचास को लिटा देने के दृश्यों में विश्वसनीय लगते हैं। इस समय सबसे अधिक लोकप्रिय रजनीकांत और सलमान खान ही हैं तथा उनकी लोकप्रिय छवियां लगभग एक-सी हैं।
आज के दौर में अमिताभ बच्चन द्वारा तीन दशक पूर्व रचा आक्रोश ही बूढ़ा हो गया है, क्योंकि युवा वर्ग मस्ती मंत्र का जाप करता है और उसने भ्रष्ट व्यवस्था को अपने हित में ही साध लिया है, अत: उसे आक्रोश की जरूरत ही नहीं है। अमिताभ बच्चन द्वारा प्रस्तुत आक्रोश भी उनके अगले चरण (‘शहंशाह’, ‘कुली’ इत्यादि) में अराजकता का प्रतीक हो गया था। समाज में आज मध्यम अवस्था के व्यक्ति और उम्रदराज लोग ही व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश की मुद्रा में हैं। टेक्नोलॉजी और विज्ञान ने भी औसत आयु बढ़ा दी है और पारंपरिक रूप से परिभाषित बुढ़ापा अब दिल्ली की तरह दूर हो गया है।
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