Tuesday 28 June 2011

भारतीय फिल्म इतिहास में किंवदंती बन गया गब्बर सिंह

सत्ताईस जुलाई, 1992 को इक्यावन वर्षीय अमजद खान की हृदयगति रुकने से मृत्यु हो गई। उनके द्वारा अभिनीत चरित्र गब्बर सिंह आज भी जीवित है। १९७५ में रमेश सिप्पी की सलीम-जावेद लिखित ‘शोले’ में अमिताभ बच्चन और धर्मेन्द्र जैसे सितारों के साथ संजीव कुमार जैसा विलक्षण कलाकार मौजूद था।

इन सभी ने शिखर श्रेणी का काम किया है, परंतु इन तीनों से कमतर अभिनेता होने के बावजूद अमजद खान अभिनीत गब्बर सिंह सर्वाधिक लोकप्रिय हुआ- यह पात्र भारतीय फिल्म इतिहास में किंवदंती बन चुका है और उसके बोलने, चलने-फिरने और खैनी फांकने की अदा की नकल कई नेताओं ने लोकप्रियता पाने के लिए की।

आज प्रदर्शन के तीन दशक बाद भी उस पात्र की पैरोडी प्रस्तुत की जाती है। सनकीपन और क्रूरता का कॉमिक बुक प्रस्तुतीकरण बच्चों में आज भी प्रिय है। सिनेमा के माध्यम से अनचाहे ही अराजकता के प्रचार का प्रतीक बन गया है और भांति-भांति के मुखौटे पहने लोग न केवल गब्बर सिंह वाला काम कर रहे हैं, वरन वही लोकप्रियता भी हासिल कर रहे हैं।

गांधी के देश में गब्बर सिंह की लोकप्रियता अबूझ पहेली है। हालांकि इस भूमिका के लिए रमेश सिप्पी पहले डैनी डेन्जोग्पा को लेना चाहते थे, जो अफगानिस्तान में फीरोज खान की ‘गॉडफादर’ से प्रेरित फिल्म ‘धर्मात्मा’ की शूटिंग कर रहे थे, जहां से अमजद खान के पिता भारत आए थे। सलीम साहब के आग्रह के कारण रमेश सिप्पी ने नए कलाकार अमजद खान को अवसर दिया, जिसे एक नाटक में सलीम और जावेद ने देखा था।

पात्र लेखक की कठपुतलियां होते हैं, परंतु अमजद खान की अदायगी ने डोर ही खींच ली। इस एक पात्र ने अमजद को १३क् फिल्में दिलाईं। गोवा जाते समय कार दुर्घटना के बाद उनका बच जाना भी खुदा का करिश्मा ही था। अमिताभ बच्चन ने संकट की उस घड़ी में उन्हें अपना खून दिया और घंटों अस्पताल में प्रार्थना करते रहे। अमजद चंगे हुए, परंतु कारटीजोन के प्रभाव से मोटे हो गए और उन्हें दिन भर में केवल शुद्ध दूध और शक्कर की सौ प्याली चाय का चाव हो गया। इससे वजन बढ़ता गया और बेचारा दिल भी कब तक, कहां तक दम मारता!

प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक और आलोचक

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