Tuesday, 14 June 2011

यह कैसा स्वयंवर है?

विगत वर्र्षो में टेलीविजन पर स्वयंवर को लेकर गढ़े गए तमाशों में किए गए विवाह शीघ्र ही टूट गए या टूटने की कगार पर पहुंच गए और आज भी एक स्वयंवर तमाशा जारी है। फिल्मों में भी स्वयंवर की तर्ज पर किसी अनाम क्षेत्र की रीति कहकर स्वयंवर की तरह के व्यवहार प्रस्तुत हुए हैं, मसलन ‘राम तेरी गंगा मैली’ में एक पहाड़ी लड़की ‘सुन साहिबा सुन, मैंने तुझे चुन लिया, तू भी मुझे चुन..’ गाकर शहरी लड़के के गले में हार डालकर उसे वर लेती है। यह फिल्मकार अपनी सुविधानुसार कर लेते हैं। गनीमत है कि अभी तक बस्तर की जनजातियों में प्रचलित ‘घोटुल’ पर किसी फिल्मकार की निगाह नहीं पड़ी है।

कलर्स द्वारा आयोजित ‘बिग बॉस’ में भी सारा खान के विवाह को दिखाया गया था और मेहंदी सूखने के पहले ही वह विवाह टूट गया। रीति-रिवाजों के नाम पर नए तमाशे गढ़ना मनोरंजन जगत का पुराना खेल है। इसी तरह आजकल सूफी संगीत के नाम पर किसी भी रचना में चंद शब्द डालकर उसे सूफी का नाम देकर बेचा जा रहा है, जबकि कुछ विशेषज्ञों की राय है कि सूफी शैली की कविता तो है, परंतु संगीत नहीं है। आज छोटे कस्बों में फिल्म की लोकप्रिय धुनों पर भजन रचे जाते हैं और आश्चर्य नहीं कि ‘मुन्नी’ और ‘शीला’ की तर्ज पर भी भजन रचे जा रहे हों।

इन सब तथाकथित लोकप्रिय बातों की जड़ में यह तथ्य है कि जनता तमाशे पसंद करती है और बाजार की ताकतें जानती हैं कि भीषण प्रचार के दम पर कोई भी लोकप्रियता गढ़ी जा सकती है। अब इसी तर्ज पर भ्रष्टाचार विरोधी तूफान रचे जा रहे हैं और इस पर तालियां बजाने वाले तकरीबन सभी लोग अवसर मिलते ही स्वयं रिश्वत ले लेते हैं। भ्रष्टाचार को जायज नहीं ठहराया जा सकता, परंतु उसके आधार पर तमाशा रचने से बेहतर है कि समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना का प्रयास हर आम आदमी स्वयं करे। परिवार नामक आधारभूत संस्था में ही परिवार का कोई सदस्य किसी अपने भ्रष्ट का विरोध करे और परिवार की गोपनीयता में ही यह काम हो सकता है। तमाशा बनाने और तालियों के पीटने से बात नहीं बन सकती।

भ्रष्टाचार के दम पर साम्राज्य रचने वाले उद्योगपतियों और पूंजीपतियों को यह बात खूब सुहाती है कि गंभीर आर्थिक प्रश्न और सामाजिक समस्याओं का तमाशीकरण हो जाए और उनका अपना खेल जारी रहे। क्या बाजार की वही ताकतें इस तरह के तमाशों को भी प्रोत्साहित कर रही हैं, जो सरकारों को भी परदे के पीछे से चला रही हैं? गोयाकि कुछ चुनिंदा लोग ‘देश-देश’ खेल रहे हैं और हम सब किसी वृहद तमाशे के जूनियर कलाकार हैं और महज भीड़ की भूमिकाएं निभा रहे हैं।

उनकी जड़ पर आक्रमण करने की कोई कोशिश हम कर ही नहीं रहे हैं और तमाशीकरण पर खुश हो रहे हैं। हर गली-चौराहे पर और सुबह सैर के लिए बनाए बाग-बगीचों में चटखारे लेकर हम बतियाते चले जा रहे हैं और अपने ही परिवार में भ्रष्टाचार द्वारा अर्जित वस्तुओं का बेहिचक भोग लगा रहे हैं। यह लगभग मृत्युभोज में आनंद लेने वाली बात की तरह है।

हमारी ही चिताएं धधक रही हैं, हम ही सुपुर्दे खाक किए जा रहे हैं और हम ही अपने मृत्युभोज का आनंद उठा रहे हैं, क्योंकि हमें सदियों से सिखाया गया है कि यह दुनिया के द्वारा देखा गया स्वप्न मात्र है और हम उसी विराट तमाशे का हिस्सा हैं। न हम जन्मे हैं और न हम मरेंगे। गिरीश कर्नाड के नाटक ‘हयवदन’ में राजकुमारों से भरी सभा में राजकुमारी स्वयंवर का हार एक घोड़े के गले में डाल देती है,

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