Tuesday 21 June 2011

जाने कहां मेरा जिगर गया जी..


विगत माह मुंबई में टाइपराइटर बनाने वाले एक कारखाने में काम बंद कर दिया गया, क्योंकि अब टाइपराइटर नहीं बिकते। दरअसल आज टाइपराइटर वाला काम कंप्यूटर पर बेहतर परिणाम सहित तेज गति से संपन्न होता है। जब टाइपराइटर ईजाद हुआ, तब असंख्य युवाओं, जिनमें महिलाओं की संख्या अधिक थी, ने रोजगार पाया। इस उपकरण ने अनेक परिवारों को भूख से बचाया और लोगों के कॅरियर बने।

दशहरे के अवसर पर हर दफ्तर में उपकरणों की पूजा की प्रक्रिया के तहत टाइपराइटर पर भी फूल चढ़े हैं और सातिया बनाया जाता रहा है। आज टाइपराइटर मर चुका है और कोई उसका श्राद्ध नहीं करता। वे परिवार भी उसे भुला चुके हैं, जिनका वह कभी पालनहार और ‘कमाऊ पुत्र’ था। स्टेनो टाइपिस्ट पात्र भी फिल्मों में बहुत बार दिखाए गए हैं। जॉनी वॉकर ने तो एक टाइपिस्ट के साथ प्रेम युगल गीत भी गाया है - ‘जाने कहां मेरा जिगर गया जी, अभी-अभी यहीं था किधर गया जी।’ यह फिल्म ‘मिस्टर एंड मिसेज 55’ का गीत है। टाइपराइटर में कभी रेमिंगटन और गोदरेज ब्रॉन्ड बहुत लोकप्रिय थे।

इसी तरह से आजकल फिल्म के पोस्टर और सड़कों पर लगे विज्ञापन के बिलबोर्ड डिजिटल प्रिंटिंग द्वारा बनाए जाते हैं, परंतु टेक्नोलॉजी के इस कदम के पहले कलाकार पेंटिंग्स करते थे। यह पेंटिंग्स का मौलिक कार्य नहीं था, स्थिर चित्र के आधार पर बिलबोर्ड पर ऊपर से नीचे और दाएं से बाएं खींची गई रेखाओं के सहारे कृतियां बनाई जाती थीं, फिर भी यह कला ही थी। देश में हजारों लोगों के जीवन-यापन का साधन था। बुरहानपुर में अशरफ के स्टूडियो में मैंने इसे बनते देखा है। एक जमाने में पेट की खातिर एमएफ हुसैन ने भी मुंबई में यह काम किया है।

‘आवारा’ के प्रथम प्रदर्शन के समय ऑटोग्राफ लेने वाली भीड़ में खड़े हुसैन साहब को पहचान कर राज कपूर उनके पास गए और कहा कि वक्त आएगा, जब आपका ऑटोग्राफ लेने मैं भी आऊंगा। केवल इसी बात को याद करके हुसैन साहब ने प्रदर्शन पूर्व फिल्म ‘हिना’ देखी और ‘हिना’ आधारित उनकी कृतियों को फिल्म की नामावली में प्रयोग किया गया है। बहरहाल, आजकल अनेक वस्तुओं पर पुरानी बिलबोर्ड शैली में बनाई गई कृतियों को महंगे दामों में खरीदा जा रहा है। उन गुमशुदा कलाकारों को फिर खोजा जा रहा है।

टाइपराइटर, बिलबोर्ड कलाकारों की तरह फिल्म संगीत में वादकों की भूमिका अब नगण्य हो गई है, क्योंकि कंप्यूटरजनित ध्वनियों का जमाना आ गया है। एक दौर में फिल्म गीत रिकार्डिग्स पर लगभग सौ साजिंदे मौजूद होते थे। उस दौर में हर साजिंदा दो-ढाई हजार रुपए प्रतिदिन कमाता था। उनका अपना संगठन भी था और उनके अभाव में रिकार्डिग मुल्तवी हो जाती थी।

विगत दो दशक में फिल्म उद्योग में अनेक परिवर्तन आए हैं, परंतु सबसे अधिक परिवर्तन ध्वनिबद्ध करने के क्षेत्र में आया है। उन साजिंदों के साथ संगीत विरासत भी चली गई। प्रगति का रथ अनेक चीजों को कुचलता हुआ आगे बढ़ता है और उसमें सवार लोगों को किसी के कुचले जाने का कोई अफसोस भी नहीं होता।

मसरूफ जमाना ऐसे ही चलता है। इस रफ्तार में अफसोस सिर्फ यह है कि संवेदनाएं भी टाइपराइटर और बिलबोर्ड पेंटिंग्स की तरह गई-गुजरी हो गई हैं। हाल ही में एक शोध बताता है कि सौंदर्य वृद्धि के लिए और उम्र के नाखूनों के निशान मिटाने के लिए बोटोक्स विधि के प्रयोग से सुंदरता तो लौट आती है, परंतु एहसास का माद्दा घट जाता है। अब किसके पास वक्त है, जो मरते एहसास और संवेदना के लिए आंसू बहाए।

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