आज आमिर खान और आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ के प्रदर्शन को दस वर्ष हो चुके हैं और ‘क्लासिक’ कहलाने की दो शर्त्े इस फिल्म ने पूरी कर ली हैं - समयातीत और यूनिवर्सल होना। यह भी गौरतलब है कि फिल्म होते हुए भी वह गैरफिल्मी क्षेत्रों में अपना स्थान बना चुकी है, मसलन व्यवसाय प्रबंधन और प्रचार विज्ञान में भी उसे पढ़ाया जाता है। नई सदी के दस्तक देते ही ‘लगान’ ने सामाजिक प्रतिबद्धता के साथ मनोरंजन के भारतीय सिनेमा के आधारभूत सिद्धांत को मजबूती देते हुए नए विषयों के समावेश का शंखनाद भी किया है।
‘रंग दे बसंती’, ‘तारे जमीं पर’, ‘ए वेडनेसडे’, ‘फंस गए रे ओबामा’, ‘भेजा फ्राय’, ‘मुन्नाभाई’, ‘चक दे इंडिया’, ‘३ इडियट्स’ इत्यादि एक ही श्रंखला की कड़ियां लगती हैं, जिनका उद्गम हम ‘दुनिया न माने’, ‘आवारा’, ‘जागते रहो’, ‘प्यासा’ ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘मदर इंडिया’, ‘बंदिनी’ और ‘गंगा-जमुना’ में देख सकते हैं। सार्थक मनोरंजन की यही परंपरा भारतीय सिनेमा की असली पहचान रही है।
यह महज इत्तफाक ही है कि ‘लगान’ के प्रदर्शन के बाद ही भारतीय क्रिकेट में महानगरों का वर्चस्व समाप्त करते हुए छोटे शहरों और दूरदराज के अंचलों से आए प्रतिभाशाली युवा क्रिकेट खिलाड़ियों ने भारतीय क्रिकेट को शिखर पर पहुंचा दिया। सच तो यह है कि ‘लगान’ क्रिकेट फिल्म नहीं है, वरना अमेरिका में क्यों इसे इतना पसंद किया गया। ‘लगान’ तो एक निहत्थे आम आदमी की शक्तिशाली व्यवस्था से टकराने और विजय प्राप्त करने की कहानी है। यह चिरंतन डेविड गोलियथ परंपरा की कथा है।
1991 से प्रारंभ उदारवाद और बाजार के दबदबे वाले कालखंड में डॉलर सिनेमा के उदय के समय यह भ्रम फैलाया गया कि अब महानगरीय मनोरंजन के दौर में ग्रामीण पृष्ठभूमि की कथा मल्टीप्लैक्स के दर्शक पसंद नहीं करेंगे, गोयाकि भारतीय सिनेमा को गैर-भारतीय बनाए जाने की साजिश को ध्वस्त करते हुए इस फिल्म ने सभी वर्गो के दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
‘लगान’ में हम भारतीय समाज की भीतरी बुनावट में निहित संकीर्णता और खतरों को भी देख सकते हैं कि किस तरह एक दलित प्रतिभाशाली को टीम में लिए जाने के विरोध को नायक असफल करता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में एक सहृदय अंग्रेज महिला की मदद को शामिल करते हुए फिल्म को साम्राज्यवाद के खिलाफ आम जनता की विजय को अंग्रेज जाति के विरोध के स्वर से भी मुक्त रखा गया है और विराट मानवीय संदर्भ को ही सशक्त रखा गया है।
‘लगान’ में प्रस्तुत घोर भारतीयता संकीर्ण नहीं है। यह आमिर खान का आत्मविश्वास और साहस ही है कि लगभग चार घंटे की महाकाव्य की तरह रची फिल्म को उन्होंने वितरकों के दबाव को नजरअंदाज करके अपने मूल स्वरूप में ही प्रदर्शित किया। तकनीकी गुणवत्ता कहीं भी ‘लगान’ की भावना प्रधानता को आहत नहीं करती, क्योंकि दर्शक को चौंकाने में उनका विश्वास नहीं है - वे सीधे दिल की बात दिल तक पहुंचाते हैं।
नई सदी का पहला दशक आमिर खान दशक के नाम से दर्ज होता है, क्योंकि ‘लगान’ से ‘पीपली लाइव’ तक उन्होंने सार्थक मनोरंजन रचा है और साथ ही वह ‘गजनी’ तथा ‘थ्री इडियट्स’ की केंद्रीय शक्ति भी रहे हैं। इस दशक में आमिर की ‘लगान’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’ और सलमान अभिनीत ‘वांटेड’ व ‘दबंग’ जैसी फिल्मों ने एकल सिनेमा की व्यवसाय क्षमता को उजागर करके भारतीय सिनेमा की ताकत को बढ़ाया है।
‘रंग दे बसंती’, ‘तारे जमीं पर’, ‘ए वेडनेसडे’, ‘फंस गए रे ओबामा’, ‘भेजा फ्राय’, ‘मुन्नाभाई’, ‘चक दे इंडिया’, ‘३ इडियट्स’ इत्यादि एक ही श्रंखला की कड़ियां लगती हैं, जिनका उद्गम हम ‘दुनिया न माने’, ‘आवारा’, ‘जागते रहो’, ‘प्यासा’ ‘दो आंखें बारह हाथ’, ‘मदर इंडिया’, ‘बंदिनी’ और ‘गंगा-जमुना’ में देख सकते हैं। सार्थक मनोरंजन की यही परंपरा भारतीय सिनेमा की असली पहचान रही है।
यह महज इत्तफाक ही है कि ‘लगान’ के प्रदर्शन के बाद ही भारतीय क्रिकेट में महानगरों का वर्चस्व समाप्त करते हुए छोटे शहरों और दूरदराज के अंचलों से आए प्रतिभाशाली युवा क्रिकेट खिलाड़ियों ने भारतीय क्रिकेट को शिखर पर पहुंचा दिया। सच तो यह है कि ‘लगान’ क्रिकेट फिल्म नहीं है, वरना अमेरिका में क्यों इसे इतना पसंद किया गया। ‘लगान’ तो एक निहत्थे आम आदमी की शक्तिशाली व्यवस्था से टकराने और विजय प्राप्त करने की कहानी है। यह चिरंतन डेविड गोलियथ परंपरा की कथा है।
1991 से प्रारंभ उदारवाद और बाजार के दबदबे वाले कालखंड में डॉलर सिनेमा के उदय के समय यह भ्रम फैलाया गया कि अब महानगरीय मनोरंजन के दौर में ग्रामीण पृष्ठभूमि की कथा मल्टीप्लैक्स के दर्शक पसंद नहीं करेंगे, गोयाकि भारतीय सिनेमा को गैर-भारतीय बनाए जाने की साजिश को ध्वस्त करते हुए इस फिल्म ने सभी वर्गो के दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।
‘लगान’ में हम भारतीय समाज की भीतरी बुनावट में निहित संकीर्णता और खतरों को भी देख सकते हैं कि किस तरह एक दलित प्रतिभाशाली को टीम में लिए जाने के विरोध को नायक असफल करता है। इतना ही नहीं, अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में एक सहृदय अंग्रेज महिला की मदद को शामिल करते हुए फिल्म को साम्राज्यवाद के खिलाफ आम जनता की विजय को अंग्रेज जाति के विरोध के स्वर से भी मुक्त रखा गया है और विराट मानवीय संदर्भ को ही सशक्त रखा गया है।
‘लगान’ में प्रस्तुत घोर भारतीयता संकीर्ण नहीं है। यह आमिर खान का आत्मविश्वास और साहस ही है कि लगभग चार घंटे की महाकाव्य की तरह रची फिल्म को उन्होंने वितरकों के दबाव को नजरअंदाज करके अपने मूल स्वरूप में ही प्रदर्शित किया। तकनीकी गुणवत्ता कहीं भी ‘लगान’ की भावना प्रधानता को आहत नहीं करती, क्योंकि दर्शक को चौंकाने में उनका विश्वास नहीं है - वे सीधे दिल की बात दिल तक पहुंचाते हैं।
नई सदी का पहला दशक आमिर खान दशक के नाम से दर्ज होता है, क्योंकि ‘लगान’ से ‘पीपली लाइव’ तक उन्होंने सार्थक मनोरंजन रचा है और साथ ही वह ‘गजनी’ तथा ‘थ्री इडियट्स’ की केंद्रीय शक्ति भी रहे हैं। इस दशक में आमिर की ‘लगान’, ‘गजनी’, ‘थ्री इडियट्स’ और सलमान अभिनीत ‘वांटेड’ व ‘दबंग’ जैसी फिल्मों ने एकल सिनेमा की व्यवसाय क्षमता को उजागर करके भारतीय सिनेमा की ताकत को बढ़ाया है।
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