महेश भट्ट की सफल फिल्म ‘मर्डर’ के भाग दो में श्रीलंका की जैक्लीन फर्नाडीज अभिनय कर रही हैं और पहले भी वे ‘अलादीन’ तथा ‘जाने कहां से आई है’ जैसी फिल्में कर चुकी हैं। भट्ट साहब की फिल्मों में पाकिस्तानी अदाकारा मीरा भी काम कर चुकी हैं। प्रकाश झा की ‘राजनीति’ में लंदन की सारा थॉमसन ने अभिनय किया था। इम्तियाज अली की ‘लव आज कल’ में ब्राजील की बाला गिजेल मोंटेरियो ने पंजाब की कुड़ी की भूमिका निभाई थी। इस समय मुंबई में एक दर्जन विदेशी बालाएं सिनेमा में अवसर के लिए स्वयं को तैयार कर रही हैं।
एक ईरान मूल की जर्मन बाला दिल आर्य फिल्म संगीत पर शोध कर रही हैं और साथ ही अपनी छोटी बहन के लिए अभिनय अवसर खोज रही हैं।
दरअसल ये सब कैटरीना कैफ की सफलता से प्रेरित हैं। दूसरी बात यह है कि भारत का अति आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया छोटी-सी भूमिका करते ही विदेशी कन्या को स्टार बना देता है और सेलिब्रिटी स्टेटस प्रदान करता है। इन बालाओं ने इतनी आसानी से अपने मुल्कों में किसी को लोकप्रियता हासिल करते नहीं देखा है, जबकि हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पश्चिम की सनसनी वाली लहर का ही अनुसरण कर रहा है।
इस समय रूस, इंग्लैंड और यूरोप के देशों से कन्याएं भारत आ रही हैं और यह एक छोटा-मोटा ‘अलडिरेडो’ अर्थात स्वर्ण की तलाश बन जाने वाला प्रकरण है। इन युवा महत्वाकांक्षी बालाओं के लिए भारत आज भी ‘सोने की चिड़िया’ है और अमेरिका के बाद शायद सबसे बड़ा स्वर्ण भंडार भारत ही है। इसका कुछ श्रेय भारतीय मध्यमवर्गीय महिलाओं को जाता है, जो किसी तरह थोड़ा-थोड़ा धन जोड़कर हर आखातीज पर थोड़ा-सा सोना अवश्य खरीदती हैं और यह परिवार का ‘काला धन’ है, क्योंकि घर खर्च में से पुरुषों से छुपाकर यह धन बचाया जाता है। इसका कुछ श्रेय सोना तस्कर दाऊद को भी जाता है, जिसने सरकार की बेतुकी बंदिश के दिनों में बेहिसाब सोने से भारत के शहरों की सराफा गलियों को लाद दिया था और तस्करी में सहयोग के लिए मंत्रियों और अफसरों को भी रिश्वत के धन से सोना खरीदने की प्रेरणा दी थी।
दरअसल युवा बालाओं के यहां आने का एकमात्र कारण उनकी महत्वाकांक्षा नहीं है। उनके देश में इस कदर आर्थिक मंदी है कि उनके पास इसके सिवा विकल्प भी नहीं है। इंग्लैंड में बूढ़ों को प्रश्रय देने का सरकारी नियम है और वे उन्हें उनकी इच्छा से भारत में रखते हैं, क्योंकि यहां चीजें उनके देश से सस्ती हैं। प्रगति में रुकावटें डालने वाली सरकारों, अधिकतम लोगों द्वारा भ्रष्टाचार में डूबे रहने और व्यावसायिक हुड़दंगों के तांडव के बावजूद यह अजब-गजब भारत की प्रगति सचमुच आश्चर्यजनक है। चीन के उद्यमी भारतीय दशा में एक दिन भी काम नहीं कर सकते।
बहरहाल, विदेश से युवा कन्याओं का भारतीय फिल्मों में आना नया नहीं है। 1922 में निर्माता जमशेदजी मदान की ‘पति भक्ति’ नामक फिल्म की केंद्रीय पात्र इटली की सेनोरा मिनोली थीं और इंग्लैंड की पेशेंस कूपर भी इसमें थीं। पहली एक्शन नायिका नाडिया भी ऑस्ट्रेलिया से आई थीं। किशोर साहू की ‘मयूरपंख’ में भी एक विदेशी बाला थी। चेतन आनंद भी प्रिया राजवंश को लंदन से लाए थे।
मेहमूद की ‘कुंआरा बाप’ में भी विदेशी बाला थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ के सर्कस चैप्टर की नायिका क्षेनिया रिविन्कना भी रूसी महिला थीं। आजकल आइटम नृत्य में नायिका के साथ नाचने वाली लड़कियां आसानी से मिल जाती हैं। विदेश से भारत में पढ़ने आने वाली लड़कियां भी इस तरह की शूटिंग में भाग लेकर अपना साल भर का खर्च निकाल लेती हैं। हम कितना ही तोड़ें, यह देश जुड़ता ही चला जाता है।
एक ईरान मूल की जर्मन बाला दिल आर्य फिल्म संगीत पर शोध कर रही हैं और साथ ही अपनी छोटी बहन के लिए अभिनय अवसर खोज रही हैं।
दरअसल ये सब कैटरीना कैफ की सफलता से प्रेरित हैं। दूसरी बात यह है कि भारत का अति आतुर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया छोटी-सी भूमिका करते ही विदेशी कन्या को स्टार बना देता है और सेलिब्रिटी स्टेटस प्रदान करता है। इन बालाओं ने इतनी आसानी से अपने मुल्कों में किसी को लोकप्रियता हासिल करते नहीं देखा है, जबकि हमारा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पश्चिम की सनसनी वाली लहर का ही अनुसरण कर रहा है।
इस समय रूस, इंग्लैंड और यूरोप के देशों से कन्याएं भारत आ रही हैं और यह एक छोटा-मोटा ‘अलडिरेडो’ अर्थात स्वर्ण की तलाश बन जाने वाला प्रकरण है। इन युवा महत्वाकांक्षी बालाओं के लिए भारत आज भी ‘सोने की चिड़िया’ है और अमेरिका के बाद शायद सबसे बड़ा स्वर्ण भंडार भारत ही है। इसका कुछ श्रेय भारतीय मध्यमवर्गीय महिलाओं को जाता है, जो किसी तरह थोड़ा-थोड़ा धन जोड़कर हर आखातीज पर थोड़ा-सा सोना अवश्य खरीदती हैं और यह परिवार का ‘काला धन’ है, क्योंकि घर खर्च में से पुरुषों से छुपाकर यह धन बचाया जाता है। इसका कुछ श्रेय सोना तस्कर दाऊद को भी जाता है, जिसने सरकार की बेतुकी बंदिश के दिनों में बेहिसाब सोने से भारत के शहरों की सराफा गलियों को लाद दिया था और तस्करी में सहयोग के लिए मंत्रियों और अफसरों को भी रिश्वत के धन से सोना खरीदने की प्रेरणा दी थी।
दरअसल युवा बालाओं के यहां आने का एकमात्र कारण उनकी महत्वाकांक्षा नहीं है। उनके देश में इस कदर आर्थिक मंदी है कि उनके पास इसके सिवा विकल्प भी नहीं है। इंग्लैंड में बूढ़ों को प्रश्रय देने का सरकारी नियम है और वे उन्हें उनकी इच्छा से भारत में रखते हैं, क्योंकि यहां चीजें उनके देश से सस्ती हैं। प्रगति में रुकावटें डालने वाली सरकारों, अधिकतम लोगों द्वारा भ्रष्टाचार में डूबे रहने और व्यावसायिक हुड़दंगों के तांडव के बावजूद यह अजब-गजब भारत की प्रगति सचमुच आश्चर्यजनक है। चीन के उद्यमी भारतीय दशा में एक दिन भी काम नहीं कर सकते।
बहरहाल, विदेश से युवा कन्याओं का भारतीय फिल्मों में आना नया नहीं है। 1922 में निर्माता जमशेदजी मदान की ‘पति भक्ति’ नामक फिल्म की केंद्रीय पात्र इटली की सेनोरा मिनोली थीं और इंग्लैंड की पेशेंस कूपर भी इसमें थीं। पहली एक्शन नायिका नाडिया भी ऑस्ट्रेलिया से आई थीं। किशोर साहू की ‘मयूरपंख’ में भी एक विदेशी बाला थी। चेतन आनंद भी प्रिया राजवंश को लंदन से लाए थे।
मेहमूद की ‘कुंआरा बाप’ में भी विदेशी बाला थी। राजकपूर की ‘मेरा नाम जोकर’ के सर्कस चैप्टर की नायिका क्षेनिया रिविन्कना भी रूसी महिला थीं। आजकल आइटम नृत्य में नायिका के साथ नाचने वाली लड़कियां आसानी से मिल जाती हैं। विदेश से भारत में पढ़ने आने वाली लड़कियां भी इस तरह की शूटिंग में भाग लेकर अपना साल भर का खर्च निकाल लेती हैं। हम कितना ही तोड़ें, यह देश जुड़ता ही चला जाता है।
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