Friday 10 June 2011

विज्ञान फंतासी और मानवीय स्पर्श


शाहरुख खान की एक सौ बीस करोड़ रुपए की लागत से बनी सुपरहीरो विज्ञान फंतासी फिल्म ‘रा.वन’ दिवाली पर प्रदर्शित होने जा रही है, परंतु चार माह पूर्व ही उन्होंने अपने चिरपरिचित जोश वाले अंदाज में प्रचार प्रारंभ कर दिया है और अपने ट्रेलर के प्रदर्शन के समय देश-विदेश के पचपन सिनेमाघरों में वे स्वयं मौजूद रहेंगे। यह खेल शुरू हो चुका है। इस फिल्म की प्रेरणा उन्हें अपने पुत्र से मिली है, जो आजकल के तमाम बच्चों की तरह विज्ञान फंतासी फिल्में और वीडियो गेम्स पसंद करता है।

शाहरुख खान यह साबित करना चाहते हैं कि भारत में भी विशेष प्रभाव वाले तकनीक से बने दृश्य हॉलीवुड से बेहतर बन सकते हैं। यह अजीब-सा इत्तफाक है कि अमेरिका युद्ध के लिए मारक हथियार बनाने में जितना कुशल है, उतना ही हॉलीवुड सिनेमा विज्ञान फंतासी बनाने में निपुण है। और युद्ध तथा मनोरंजन का क्या संबंध हो सकता है, यह वही बता सकते हैं।

शाहरुख खान का फरहा खान की पसंद के सिनेमा से इनकार करने के पीछे भी कोई व्यक्तिगत कारण नहीं है। वह सिनेमा में तकनीकी विकास के प्रति प्रतिबद्ध हैं। यह व्यक्तिगत रुचि और स्वतंत्रता का मामला है। उन्हें मसाला फिल्मों की जगह तकनीकी चमक-दमक के कौतुक पसंद हैं। ज्ञातव्य है कि शंकर की ‘रोबोट’ पहले शाहरुख ही निर्मित करने वाले थे, परंतु शंकर विशेष प्रभाव वाले दृश्यों के लिए उनके मुंबई स्थित स्टूडियो में महीनों तक काम करने के बदले वही काम चेन्नई में करना चाहते थे।

मोगेंबो और गब्बरसिंह से प्रभावित शाहरुख ने अपने ‘रा.वन’ नामक खलनायक का पात्र ऐसा गढ़ा है, जो टेक्नोलॉजी से शक्ति प्राप्त करता है गोयाकि यह ‘शान’ के शाकाल का आधुनिक स्वरूप है। आज तकनीकी गुणवत्ता से युक्त विज्ञान फंतासी के साथ ही विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी का सिनेमा भी सफल है, जो कथा में मानवीय भावनाओं का संसार रचते हैं और इस तरह की दो धाराएं भारतीय सिनेमा के उद्गम से ही चली आ रही हैं।

हिमांशु राय तकनीक के लिए जर्मनी से विशेषज्ञ आमंत्रित करते थे और उसी कालखंड में शांताराम घोर भारतीयता का आग्रह करते थे। शाहरुख खान ने ‘छम्मक छल्लो’ जैसा गीत भी फिल्म में रखा है और करीना कपूर के अपने जलवे भी हैं।

शाहरुख खान का यह भी दावा है कि प्राय: फिल्मों में माता और पुत्र के रिश्ते दिखाते हैं और उनका खयाल है कि उनकी ‘रा.वन’ पिता-पुत्र रिश्ते की पहली फिल्म है। प्रचार के जोश में वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर गए कि ‘आवारा’ और ‘मुगल-ए-आजम’ पिता-पुत्र रिश्तों की फिल्में थीं और वर्ष 1950 में बनी ‘संग्राम’ के आधार पर सलीम-जावेद की रची ‘शक्ति’ भी पिता-पुत्र के रिश्ते की फिल्म थी तथा अमिताभ बच्चन की दोहरी भूमिकाओं वाली ‘आखिरी रास्ता’ पिता-पुत्र कहानी थी।

भारतीय समाज और सिनेमा में पिता-पुत्र, माता-पुत्र इत्यादि कहानियां फिल्माई जाती रही हैं और पिता-पुत्री कथाओं का अकाल रहा है क्योंकि पुत्रों को हथियारों की तरह और पुत्रियों को अपने सिर पर लटकती तलवारों की तरह पाला जाता रहा है।बहरहाल, आमिर और सलमान की सफलता से शाहरुख विचलित नहीं हैं क्योंकि वह अब अलग किस्म की फिल्मों के प्रति आकर्षित हैं और बतौर अभिनेता भी उनकी आखिरी अच्छी फिल्म ‘चक दे इंडिया’ थी।

फरहा खान से फारिग होना उनके नए झुकाव का संकेत है। उनकी फिल्म की प्रथम झलक का आखिरी शॉट यह है कि हवा में उड़ता हुआ नायक नायिका की कार के बोनट पर आ बैठा है और शीशे के पार निकला एक हाथ गालों की ओर बढ़ता है, गोयाकि शीशा तड़का नहीं और मनुष्य का स्पर्श भी हो रहा है। विज्ञान फंतासी भी मनुष्य के स्पर्श के बिना स्पंदनहीन ही होती है।

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