Tuesday 31 May 2011

उत्साह तरंग का आविष्कार

इस वर्ष का आईपीएल क्रिकेट तमाशा विगत वर्षों की तुलना में कम सफल रहा है, परंतु आदतन लती लोगों की जमात में इस समय नैराश्य छाया है क्योंकि उनकी शामें वीरान हो गई हैं। अनेक लोगों को हमेशा किसी न किसी तमाशे की तरंग की आवश्यकता होती है और इसके अभाव में वे ऊब जाते हैं। फ्रांस के पेरिस में एफिल टॉवर के समय पूरे वर्ष भर के लिए विविध अंतरराष्ट्रीय मनोरंजन के कार्यक्रम रचे गए थे।

विदेशों से सर्कस, नाटक और संगीतज्ञ आमंत्रित किए गए थे। वर्ष के समाप्त होने पर तरंग का लोप हो गया और कुछ ऊब के मारे लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। हमारे यहां भी राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले त्योहारों के समाप्त होने पर लोग सूनापन महसूस करते हैं और उत्सव नदी से तरंग के लोप होने पर किनारों पर भांति-भांति का कचरा पड़ा रहता है और इसमें अदृश्य भावना का कूड़ा भी शामिल रहता है।दरअसल यह तरंग की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि हम रोजमर्रा के जीवन में उत्साह की तरंग पैदा नहीं कर पाते और केवल मशीनवत ही अपना काम करते हैं।

काम में आनंद नहीं ले पाने की असमर्थता के कारण ही काम बोझ लगता है और एक अतिरिक्त तरंग या नशे की आवश्यकता पड़ती है। दफ्तरों में काम करने वाले आला अफसर भी मंगलवार से शनिवार-इतवार की छुट्टी का इंतजार करते हैं और रागरंग में डूबे सप्ताहांत के बाद सोमवार की सुबह ही निराशा से घर जाते हैं। वे एक तरह का हैंगओवर महसूस करते हैं।

छुट्टी का नशा बहुत धीरे-धीरे छंटता है। रोजमर्रा के जीवन में चीजों का दोहराव होता है, जिससे ऊब पैदा होती है, परंतु अगर हम कल्पनाशीलता और प्रेम के भाव के साथ इस दोहराव को भी रोचक बना सकें तो किसी अतिरिक्त तरंग या अतिरिक्त रिश्ते की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। आजकल एक नए टीवी सीरियल के प्रोमो आ रहे हैं, जिसमें विवाह के पश्चात प्रेम के विकास की कहानी है। यह बहुत ही रोचक सीरियल बनने की संभावना है।

दांपत्य जीवन के साधारण-से कार्यों में भी प्रच्छन्न काम भावना निहित है। निगाह में खोज के उत्साह की कमी से दोहराव और ऊब पैदा हो रही है। जीवन में थोड़े से अभिनय की आवश्यकता होती है और अभिनय में जीवन होना भी जरूरी है। हर व्यक्ति में लेखन की संभावना है और इस आसन्न प्रतिभा को खोजकर तराशने का काम रोजमर्रा के जीवन में कथा रचने से किया जा सकता है। सारे सामान्य वार्तालाप को हास्य और रहस्य से संवारा जा सकता है। फिल्मकारों ने विगत वर्षों में युवा प्रेम की कहानियां इतनी रची हैं, मानो किसी और अवस्था में प्रेम होता ही नहीं या दांपत्य प्रेमहीन है।

जीवन का हर दिन एक एकांकी है, परंतु हम उन रोचक तत्वों को अनदेखा करते हैं। प्राय: ‘लल्लू यह जीना भी कोई जीना है’ के मनोवैज्ञानिक दबाव को हम स्वयं ही पैदा करते हैं। सारे काम मशीनवत करते रहना हमें मनुष्य ही नहीं रहने देता। रोजमर्रा के छोटे से छोटे काम रस लेकर करने से सारी क्रियाएं जीवंत हो जाती हैं। नहाना केवल नहाना न होकर गंगा-स्नान भी हो सकता है। भावना का निवेश करने में हम कंजूस हो गए हैं और संचय करने से ये दुगुनी नहीं होती, वरन नष्ट हो जाती है। जैसा जीवन में पैदा किया हुआ धन आप अपने साथ नहीं ले जाते, वैसे ही संचित एवं अनाभिव्यक्त भावना का कोष भी यहीं धरा रह जाता है।

आर बाल्की की ‘चीनी कम’ और ‘पा’ जैसी फिल्मों में सारे पात्र रोजमर्रा के जीवन में ही हास्य एवं रोचकता पैदा करते नजर आते हैं और चुहल तथा शरारत भी खूब जमकर उभरती है। मसलन ‘चीनी कम’ में तब्बू बूढ़े अमिताभ को दरख्त तक दौडऩे का निवेदन करती है और दौड़कर लौटने पर ऐसा कराने का कारण पूछने पर कहती है कि वह अपने प्रेमी का दमखम देखना चाहती थी। बहरहाल अतिरिक्त तरंग पर निर्भर करना ही अनुचित है।

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