Friday 13 May 2011

हम दोस्त थे हमशक्ल नहीं


जब मैं पहली बार इंग्लैंड गया था, तब मुझे यह चिंता सता रही थी कि मैं अंग्रेज लड़कियों से दोस्ती कैसे करूंगा। मुझे डर था कि मेरे हुलिये के कारण लड़कियां मेरी तरफ आकर्षित नहीं होंगी। सौभाग्यवश ऐसा नहीं हुआ।

वास्तव में मुझे अपने खास हुलिये के कारण ही एक विशुद्ध भारतीय समझा गया, जबकि मेरे चिकने-चुपड़े साथियों को भूरे अंग्रेज कहकर नकार दिया गया। लंदन यूनिवर्सिटी में हम तीन दोस्त थे। इन्हीं में से एक थे तरलोक सिंह। वे बहुत पढ़ते-लिखते थे। बाद में वे सिविल सेवा में चले गए और योजना आयोग के अध्यक्ष बने।

मेरे दूसरे दोस्त थे बसंत सिंह। वे केन्या से आए थे और बहुत अच्छे क्रिकेट खिलाड़ी थे। तब तक मैंने अपने जीवन में कोई तीर नहीं मारा था। हम तीनों दोस्तों में कोई समानता नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद अंग्रेज हमेशा हम तीनों को पहचानने में गलती कर जाते थे।

तरलोक सिंह प्रोफेसर हेरॉल्ड लास्की के प्रिय छात्र थे और वे मुझे अक्सर तरलोक समझकर अपनी किताबें दे दिया करते थे।

एक और मजेदार घटना तब घटी, जब कैम्ब्रिज के सेल्विन कॉलेज में पढ़ने वाले अमरजीत सिंह वेल्विन गार्डन सिटी में सप्ताहांत बिताने आए। तब मैं जंगल के निकट एक कॉटेज में रह रहा था। उस वक्त जंगल में रोडोडेंड्रन फूलों की बहार आई हुई थी।

अमरजीत सिंह ने कैम्ब्रिज लौटने से पहले जंगल घूमने का निश्चय किया। वहां उन्हें एक बुजुर्ग महिला मिली और उसने उनके साथ इस तरह व्यवहार किया, जैसे वे उन्हें जानती हों। कुछ देर गपशप करने के बाद अमरजीत ने उन्हें कहा कि शायद वे उन्हें खुशवंत समझ रही हैं, जो कि उनका दोस्त है।

महिला ने माफी मांगते हुए कहा: ‘मुझे भी पहले-पहल ऐसा ही लगा था कि तुम खुशवंत नहीं हो, लेकिन मैं निश्चित नहीं थी।’ कुछ समय बाद उनकी रेलवे स्टेशन पर भेंट हुई। महिला ने उनका अभिवादन किया और उनसे कहा : ‘पता है खुशवंतजी, मेरी आपके एक दोस्त से भेंट हुई थी और मैंने उनसे यह समझकर बातें करनी शुरू कर दी कि वे आप हैं!’

मुझे जेरूसलम का भी एक वाकया याद आता है। मैं किंग डेविड होटल में ठहरा हुआ था। एक शाम डायनिंग रूम में मैंने एक खाली टेबल देखी तो मैं वहां जाकर बैठ गया। समीप की टेबल पर एक अमेरिकी दंपती बैठे थे। उन्होंने मुझे देखा और फिर एक-दूसरे के कान में कुछ फुसफुसाने लगे।

इसके बाद महिला का पति उठकर मेरे पास आया और उसने मुझसे पूछा: ‘एक्सक्यूज मी, क्या आप अंग्रेजी बोलते हैं?’ मैंने कहा: ‘जी हां।’ उन्होंने पूछा: ‘मैं और मेरी पत्नी सोच रहे थे कि आप किस देश से आए होंगे।’ मैंने सोचा कि इन दोनों से थोड़ा मजाक किया जा सकता है।

मैंने कहा: ‘मैं आपके सामने तीन विकल्प रखता हूं। यदि आप सही साबित हुए तो मैं आपकी ड्रिंक्स का खर्चा उठाऊंगा।’ उस व्यक्ति ने कुछ देर सोचा और फिर कहा: ‘क्या आप यहूदी हैं?’ मैंने जवाब दिया: ‘जी नहीं।’ फिर उन्होंने पूछा : ‘तो क्या आप मुस्लिम हैं?’ मैंने कहा: ‘नहीं, मुस्लिम भी नहीं।’

उन्होंने अपने अंतिम विकल्प का उपयोग करते हुए पूछा: ‘तब तो आप बौद्ध होंगे।’ मैंने कहा: ‘मैं बौद्ध भी नहीं हूं।’ उन्होंने कहा: ‘मैं हार मानता हूं। आप बताइए कि आप कौन हैं?’ मैंने जवाब दिया: ‘मैं सिख हूं।’ उन्होंने कुछ देर सोचा और फिर कहा: ‘तब तो आप सिक्किम के होंगे।’

कौन हूं मैं: मैं कोलमैन बार्क्‍स द्वारा किए गए रूमी के अनुवाद पढ़ रहा था। मैं इन्हें कई बार पढ़ चुका था। इसलिए इस बार पुस्तक के वे ही अंश पढ़ रहा था, जिन्हें मैंने रेखांकित किया था। यहीं मुझे वे पंक्तियां मिलीं, जिन्हें पढ़कर मुझे लगा कि यही तो मेरे विश्वासों का सारांश है।

मुझे नहीं पता मैंने इन पंक्तियों को पहले कभी उद्धृत किया है या नहीं। लेकिन अगर मैंने पहले कभी उद्धृत किया भी है, तब भी वे इस योग्य हैं कि उन्हें फिर से दोहराया जाए। वे इस प्रकार हैं:
ईसाई नहीं। यहूदी या मुस्लिम नहीं।
हिंदू, बौद्ध, सूफी या जेन भी नहीं।

न किसी धार्मिक-सांस्कृतिक प्रणाली के तहत।
मैं न पूर्व से आया न पश्चिम से।
न समुद्र से निकला न उगा धरती पर।

न लौकिक, न अलौकिक।
किसी भी तत्व से
निर्मित नहीं हुआ मैं।
मेरा कोई अस्तित्व नहीं।
मैं न इस लोक का न परलोक का।
न आदम और हव्वा की संतान।
न सृष्टि की उत्पत्ति की
किसी कहानी की उपज।
मेरी कोई जगह नहीं
कहीं कोई निशान नहीं।
मैं जानता हूं तो केवल अपने प्रिय को।
मैंने दो दुनिया को एक की तरह देखा है।
और वह एक दुनिया पुकारती है
प्रथम, अंतिम, बाहरी, भीतरी,
केवल एक सांस को
सांस लेते इंसान को।

डिनर केक: संता इंग्लैंड में पांच साल बिताने के बाद अपने गांव लौटा। वह इंग्लैंड में वर्क वीजा पर रह रहा था। वह गांव में शेखी बघारने लगा और देहातियों पर अंग्रेजी का रौब झाड़ने लगा। एक बार वह अपने दोस्त बंता के साथ सुबह की सैर पर निकला था। रास्ते में गोबर पड़ा था।

संता ने उसे देखकर कहा: ‘ओह, दिस इज ए केक।’ बंता ने फौरन तुक मिलाते हुए कहा: ‘इसनूं चख के वेख।’ इसके बाद संता ने कभी अंग्रेजी बघारने की कोशिश नहीं की।
(सौजन्य: रामनिवास मलिक, गुड़गांव)

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