Tuesday 31 May 2011

क्या देह गंध या इच्छा फैक्टरी में बनती है?

आजकल विज्ञापन फिल्मों की एक श्रंखला चल रही है, जिसमें दांपत्य जीवन के सुख के साथ चॉकलेट बेची जा रही है। मसलन एक फिल्म में पत्नी बाथरूम से बाल सुखाते हुए कमरे में प्रवेश करती है, जहां पति उससे पूछता है कि खाने में क्या बना है और साधारण-सी सब्जी पके होने की बात पता चलने पर पूछता है कि मीठे में क्या है। पत्नी की हल्की-सी मुस्कान में निमंत्रण है भोजन के पश्चात की क्रिया का और कोई अभद्र इशारा नहीं है। पूरी तरह से साड़ी में ढंकी महिला केवल मुस्कान से इच्छा जगाती है। यह सेंसुअसनेस का प्रदर्शन है।

दूसरी ओर लंबे समय से एक डियोडरेंट के विज्ञापन आ रहे हैं, जिसमें इस खुशबू को इस्तेमाल करने वाले पुरुष के पीछे स्त्रियां निर्लज्ज होकर भाग रही हैं। इस श्रंखला के एक विज्ञापन में एक नवविवाहिता अपने कमरे की खिड़की के पास खड़ी है। सामने वाली खिड़की में एक पुरुष यह डियोडरेंट लगाता है, नवविवाहिता इस परपुरुष की ओर मंत्रमुग्ध होकर देखती है और अपने जेवर इत्यादि उतारने लगती है।

यह भी एक निमंत्रण ही है, परंतु यह अभद्र और अश्लील होते हुए रिश्तों की परिभाषाओं को भंग करता है। एक तरफ दांपत्य जीवन में सूक्ष्म निशा निमंत्रण है, दूसरी ओर नवविवाहिता बलात्कार को प्रोत्साहित करती सी लगती है। खुशबू की विज्ञापन श्रंखला में शरीर की गंध मिटाने वाले इस प्रोडक्ट का विज्ञापन एक एफ्रोडिजिएक अर्थात कामेच्छा बढ़ाने की कृत्रिम दवा की तरह किया जा रहा है।

सरकार ने डियोडरेंट विज्ञापन श्रंखला को पांच दिनों में टेलीविजन से हटाए जाने का आदेश दिया है, जिस पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम हितैषी लामबंद होते नजर आ रहे हैं। सरकार को नैतिकता के संरक्षक के रूप में कोई भी नहीं देखना चाहता, परंतु अश्लीलता और निर्लज्जता की मार्केटिंग के खिलाफ कदम उठाया ही जाना चाहिए।

खाने के बाद मीठे की श्रंखला में मौन निमंत्रण है, वह भी केवल एक मुस्कान के द्वारा; जबकि डियोडरेंट के विज्ञापन में मांस का बाजार और इच्छाओं का नग्न नृत्य ही प्रदर्शित किया जा रहा है।यह सच है कि नैतिकता के स्वयंभू हवलदार आतंक फैलाते हैं और हुल्लड़बाजी अब एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो चुकी है।

सरकार को इस भूमिका में कतई सहन नहीं किया जाना चाहिए, परंतु जब प्रकरण इतना स्पष्ट है कि इसके पक्ष में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, तब सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध का स्वागत किया जाना चाहिए। केवल छद्म बौद्धिकता के तकाजे के तहत विरोध की खातिर विरोध करना अर्थहीन कसरत है।

यह भी सच है कि क्या श्लील है और क्या अश्लील, यह तय करना कठिन है और वर्ष 1933 में जेम्स जॉयस की ‘यूलिसिस’ पर दिया गया जज वूल्से का फैसला महत्वपूर्ण था कि अश्लीलता का निर्धारण रचना के पूरे संदर्भ को देखकर सृजनकर्ता की नीयत का आकलन करके किया जाना चाहिए।

इस प्रकरण में डियोडरेंट का विज्ञापन सभी हदों को न केवल पार करता है, वरन वह प्रोडक्ट में जो तत्व नहीं है, उसके झूठ का भी प्रतिनिधित्व करता है। सारी दुनिया यह स्वीकार करती है कि एफ्रोडिजिएक एक भ्रम है और इच्छा का केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क है। बदन में इच्छा द्वारा उत्पन्न एक सुगंध जरूर कुछ कारगर हो सकती है, परंतु देह गंध को फैक्टरी में प्रोडक्ट की तरह बनाया नहीं जा सकता।

विज्ञापनों पर नियंत्रण के लिए एक संस्था है, जिसमें कदाचित ऐसे लोग चुन लिए गए हैं, जिनकी निर्णय शक्ति पर संदेह किया जा सकता है। अखबारों की अपनी अनुशासन संस्था है। जहां कहीं भी लोकप्रिय मत की गणना से निर्णय होते हैं, वहां कुछ घपले संभव हैं, क्योंकि लोकप्रियता के रसायन में निहित स्वार्थ शामिल हो सकते हैं।

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