Tuesday 17 May 2011

दर्शक अदृश्य : फिल्मकार असमंजस में

विगत कुछ महीनों में प्रदर्शित फिल्में असफल रही हैं। भारत में इस असफलता के लिए क्रिकेट तमाशे को दोष दिया जा सकता है, परंतु अमेरिका में भी बॉक्स ऑफिस पर वीराना छाया है और इसे दूर करने के लिए थके-मांदे सुपरहीरो की फिल्मों को नई सनसनी के साथ प्रस्तुत करने का विचार किया जा रहा है। हाल ही में रिलीज ‘थोर’ द्वारा प्राप्त पहले सप्ताह की आय इस विचार को मजबूती देती है।

अमेरिका बॉक्स ऑफिस पर पांच से पंद्रह वर्ष के बच्चों का शासन चलता है, इसलिए सुपरहीरो और विज्ञान फंतासी रची जाती हैं। भारत में दर्शक संरचना थोड़ी अलग है। यहां बचपन की उंगली थामे लंगड़ाता बुढ़ापा भी सिनेमाघर जा पहुंचता है और महिलाओं को मॉल लुभाते हैं, जहां सिनेमा भी उपलब्ध है। भारत में सुपरहीरो फिल्में बन रही हैं, परंतु भारतीय स्वरूप हॉलीवुड से अलग है।

मसलन शाहरुख खान की 120 करोड़ की लागत से बन रही ‘रा.वन’ में शाहरुख और करीना पर ‘छमक छल्लो’ गाना फिल्माया गया है। हम सिर्फ मंदिर में चढ़ने वाले प्रसाद को ही मसालेदार नहीं बनाते, अन्यथा हमारा हर क्रियाकलाप मसालेदार होता है, यहां तक कि रोजमर्रा की बातचीत भी।

बहरहाल, सुपरहीरो फिल्मों के लिए नए कौतुक रचने के लिए कल्पनाशीलता की आवश्यकता है और सिनेमा की तकनीक लेखक की कल्पना को चुनौती देती है। आमिर खान और आदित्य चोपड़ा ‘धूम ३’ के लिए अनेक अजूबे रच रहे हैं। राकेश रोशन भी चीनी विशेषज्ञों के साथ ‘कृश ३’ के लिए मेहनत कर रहे हैं।

दरअसल मुद्दा यह है कि सुपरहीरो फिल्मों के बदले मानवीय कहानियां चुनी जाएं, जिनमें आम आदमी संघर्ष करके सतह से ऊपर उठता है और दर्शक की बुद्धि को चौंकाने से बेहतर है, उसके दिल को छुआ जाए। आज भी आंसुओं से बॉक्स ऑफिस को तर किया जा सकता है।

विधु विनोद चोपड़ा और राजकुमार हीरानी यही कर रहे हैं। उनकी ‘फरारी की सवारी’ में कोई बड़ा सितारा नहीं है और ‘मुन्नाभाई’ श्रंखला का सितारा भी पटकथा ही रही है। इस तरह की फिल्मों में भी कल्पनाशीलता काम करती है, परंतु वह टेक्नोलॉजी की चुनौती से भयाक्रांत नहीं है।

भारतीय सिनेमा अपने आजमाए हुए हास्य का फिल्मों में भी इस्तेमाल करता है, जो प्राय: सीमाएं लांघकर फूहड़ हो जाती हैं। हास्य के साथ एक्शन मिलाकर मनोरंजक फिल्में भी बनाई जा रही हैं, जिनमें खिलंदड़ सलमान खान की दबंगई किसी सुपरहीरो से कम व्यवसाय नहीं कर रही है, परंतु सुना है कि वे अपने भाई सोहेल की ‘शेरखान’ में जंगल, जानवर और सुपरहीरो तत्वों को मिलाने जा रहे हैं। छोटी फिल्मों का रास्ता बड़े संकटों से घिरा है क्योंकि फिल्म निर्माण की लागत से ज्यादा खर्च प्रचार और प्रदर्शन पर लगता है, परंतु ‘ए वेडनसडे’, ‘फंस गए रे ओसामा’, ‘तेरे बिन लादेन’, ‘बैंड बाजा बारात’ तथा ‘तनु वेड्स मनु’ खूब सफल रही हैं।

गौरतलब है कि सफलता का न्यून प्रतिशत सभी श्रेणियों की फिल्मों में समान है। केवल लाभ का प्रतिशत अलग-अलग है। चिंता की बात यह होनी चाहिए कि सभी श्रेणियों की फिल्मों में सैटेलाइट अधिकार और अन्य गैरसिनेमाई स्रोतों की आय समग्र आय का बहुत बड़ा हिस्सा है, जिसका अर्थ है कि सिनेमाघरों में दर्शकों की संख्या कम है।

मनोरंजन की आवश्यकता शाश्वत है, परंतु आज विकल्प मौजूद हैं। फिल्मकार असमंजस में हैं कि क्या बनाएं? दरअसल वे तेजी से बदलते हुए भारत को नहीं समझ पा रहे हैं। सारे भ्रष्टाचार और सरकारी अड़ंगों तथा गैरसरकारी हुड़दंगों के बावजूद भारतीय ऊर्जा अनेक क्षेत्रों में प्रगति कर रही है। इस अविजित और तर्क के परे भारतीयता को फिल्मों में ढालने से ही सारी धुंध छंटेगी और दर्शक सिनेमाघर आएंगे।

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