Monday 2 May 2011

संदिग्ध सूत्रों से उठे बवंडर

दिल्ली स्थित अमेरिकन दूतावास अपने नजरिए से देखे हिंदुस्तान और उसके राजनीतिक गलियारों में हुई काना-फूसी के आधार पर अपना आकलन अपने आकाओं को भेजता है और इन गोपनीय समझे जाने वाले दस्तावेजों की चोरी होती है या चोरी के नाम पर कोई तीसरी ताकत कुछ उजागर करती है।



आज विकीलीक्स के नाम पर जो बवाल मचा है, कुछ इससे मिलता-जुलता मामला मार्च 1987 में हुआ, जब इंडियन एक्सप्रेस के पन्नों पर फेअरफैक्स नामक विदेशी एजेंसी की कथाएं छपने लगीं और दो हफ्तों में ऐसा माहौल बनाया गया कि राजीव गांधी एक बेईमान आदमी हैं और उन्हें प्रधानमंत्री बने रहने का अधिकार नहीं है। बाद की जांच में पाया गया कि फेअरफैक्स के पास न कोई आधिकारिक जानकारी थी और न ही उसकी विश्वसनीयता का कोई प्रमाण था।



ज्ञातव्य है कि राजीव गांधी के दो चमकीले वर्षो 1958-86 में विकास दर पहली बार पांच प्रतिशत हो गई और एक तरह से ये 1991 में आए आर्थिक उदारवाद के पहले प्रारंभ उदारवाद का नतीजा था। कुछ भीतरी ताकतें हैं, जो यथास्थिति बनाए रखना चाहती हैं क्योंकि इसी में उनका स्वार्थ है, जो विदेशों के संदिग्ध स्रोतों के साथ मिलकर अफवाहों का अंधड़ खड़ा करती हैं।



दरअसल इस प्रकरण का एक महत्वपूर्ण पहलू यह है कि हमें विदेशी स्रोतों की आवश्यकता क्यों पड़ती है और किसे प्रमाण चाहिए कि भारत में भ्रष्टाचार है और इसकी होम्योपैथिकनुमा मात्रा आजादी के बाद से मौजूद थी। जो अब बढ़कर आयुर्वेद का काढ़ा बन चुकी है। विदेश विश्वसनीय है, इस भ्रम से हम कब मुक्त होंगे? कब हम गुलाम मानसिकता से छुटकारा पाएंगे? कब तक हम अपने वतन को दूसरों के चश्मे से देखते रहेंगे? क्यों निर्माता ऑस्कर के लिए मरा जा रहा है? ‘मदर इंडिया’ को ऑस्कर न मिलने से उसकी महत्ता कम नहीं होती।



आज सत्तापक्ष और विरोध पक्ष एक-दूसरे के नेताओं के संदिग्ध बयान उजागर होने पर प्रसन्न होते हैं, मानो विपक्ष के चेहरे पर लगी कालिख से हमारा अपना दागदार चेहरा धुल जाएगा। स्मरण आता है, ‘काजर की कोठरी में कैसो ही सयाना जाए, एक लीक काजर की लागी है पे लागी है।’ जिन संस्थाओं को देश का उजला भविष्य गढ़ना है, उन संस्थाओं को हमने ‘काजर की कोठरी’ बना दिया है।



भ्रष्टाचार विरोधी कानून है और नए कानून बनाने का आग्रह है। मानो कानून, पुलिस या न्यायालय भ्रष्टाचार मिटा देंगे, यह एक भ्रम है। इस समस्या की जड़ें धन में नहीं हैं, वरन सांस्कृतिक शून्य और नैतिक मूल्यों के पतन में हैं और इनकी दोबारा स्थापना से ही समस्या का हल निकलेगा।



अगर यह मामला धन का होता तो कम वेतन पाने वाले की दुविधा समझी जा सकती है, परंतु अमीर और ताकतवर लोग भ्रष्टाचार में आकंठ लिप्त हैं।

जीवन मूल्य किसी पाठशाला में नहीं सिखाए जाते। वे परिवार नामक संस्था में शिशु अवस्था ही नहीं वरन कोख में आते ही सोच में प्रवाहित होते हैं।



जीवन शैली का अविभाज्य हिस्सा हो जाते हैं। आज अगर परिवार का कोई सदस्य अपने ही किसी भ्रष्ट सदस्य के खिलाफ खड़ा हो जाए या कोई बुजुर्ग परिवार के युवा सदस्य द्वारा भ्रष्ट आचरण से घर लाई सुविधा का उपयोग करने से इंकार कर दे, तो कुछ उम्मीद बनती है।



यह एक ऐसी गंदगी है कि ऊपर से बुहारने से काम नहीं बनेगा, सफाई घर-घर से प्रारंभ होनी चाहिए। सांस्कृतिक मूल्यांे का किसी भी धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यह गौरतलब है कि जब भी विकास दर बढ़ती है, तब कोई फेअरफैक्स या विकीलीक्स भीतरी ताकतों से मिलकर अस्थिरता लाते हैं।

No comments:

Post a Comment