Monday 2 May 2011

नसों में दौड़ता जातिवाद, त्वचा पर उभरे जख्म


मुंबई से प्रकाशित भास्कर समूह के सहयोगी प्रकाशन ‘डीएनए’ में राहुल रौशन ने लिखा है कि जून से सितंबर तक काम पूरा होने पर जाति आधारित जनगणना के आंकड़े प्रकाशित होने के बाद ज्ञात होगा कि देश के किन हिस्सों में किस जाति समूह के लोग अधिक हैं। इन आंकड़ों को प्राप्त करने का उद्देश्य सरकार ने यह बताया है कि पंचवर्षीय योजना में पिछड़े वर्र्गो के विकास को मद्देनजर रखकर कुछ योजनाएं बनाई जाएंगी।



राजनीतिक दल हमेशा ही क्षेत्र में जाति के मतों की संख्या के आधार पर चुनाव का अपना प्रतिनिधि चुनते रहे हैं, परंतु अब आधिकारिक आंकड़ों के बाद उनके काम में दक्षता आएगी, भले ही जाति और धर्म आधारित दृष्टिकोण गणतंत्र की मूल भावना पर आघात करता हो। आरक्षण नीति में भी ये आंकड़े यथेष्ठ परिवर्तन प्रस्तुत करेंगे।



आज के दौर की बाजार ताकतों के संगठन और योजनाबद्ध ढंग से काम करने का उदाहरण यह है कि इन आंकड़ों के आधार पर क्षेत्र विशेष के लिए उनकी रुचियों का माल बनाया जाएगा। पहले भी जाति के आधार पर मोबाइल का रीचार्ज ‘यादव कूपन’ और ‘राजपूत कूपन’ तथा इस्लाम धर्म मानने वालों के लिए ‘786 कूपन’ का प्रयोग सफलता से किया जा चुका है।



सलीम-जावेद ने इस शुभ आंकड़े के बिल्ले का नाटकीय प्रयोग ‘दीवार’ फिल्म में किया था। यश चोपड़ा ने ‘वीर-जारा’ में भारतीय व्यक्ति को जासूसी के झूठे आरोप में पाकिस्तान की जेल में कैदी नंबर 786 के रूप में प्रस्तुत कर एक जबरदस्त दृश्य बनाया था।



सरकार में एक विचार यह था कि जाति-भेद के आंकड़े एकत्रित नहीं किए जाएं, परंतु जनगणना में ऐसा नहीं करने पर भी जाति आधारित भेदभाव इस देश में मिटने वाला नहीं था। अत: एक आदर्श की खातिर कड़वे यथार्थ को अनदेखा करना अनुचित होता।



जाति आधारित कट्टरता, भेदभाव और पूर्वग्रह देश की नसों में रक्त की तरह प्रवाहित हैं और प्राय: फोड़े-फुंसियों व गठानों के रूप में त्वचा पर उभरकर देश को बदसूरत बनाते हैं। सम्मान के लिए अपनी जाति की कन्या का वध आज भी किया जा रहा है और शिक्षित समाज भी बर्बर हो जाता है। दिल्ली में एक अनसुलझी सी हत्या का आरोप शिक्षित दंपती पर है। इसकी जांच-पड़ताल भी इसी जहर के कारण धुंध में दबाई गई है।



विनय शुक्ला की शबाना आजमी अभिनीत महान फिल्म ‘गॉडमदर’ के एक दृश्य में एक पुलिस अफसर अपने सजातीय अपराधी को भागने का अवसर देता है। यह एकमात्र फिल्म है जिसमें जाति के आधार पर जाति की भलाई के नाम पर बनाए गए संगठन को कट्टरता फैलाते और वोट बैंक के भ्रम को मजबूत बनाते दिखाया गया है। तमाम टेलीविजन सीरियलों में भी इसी आधार पर पात्र गढ़े जाते हैं और इन पूर्वग्रहों को मजबूत किया जाता है।



जबसे टेलीविजन लोकप्रियता की टीआरपी व्यवस्था बिहार और पश्चिम उत्तरप्रदेश तक पहुंची है, तबसे सीरियल पात्रों के क्षेत्रों में उनका समावेश हुआ है। क्या शीघ्र ही बाजार में ‘यादव साबुन’, ‘ब्राrाण डिटर्ज्ेट’, ‘राजपूत टेलकम’, ‘मुस्लिम खुशबू’ इत्यादि बेचे जाएंगे? बाजार भी ‘डिवाइड एंड सेल’ में यकीन करता है। कबीर की पंक्तियां याद आती हैं- जात-पात पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि का होई। एक और दोहा है- जात न पूछो साधु की, पूछ लीजिए ज्ञान। मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान।

6 comments:

  1. बहुत ही अव्यवस्थित और सतही विश्लेषण। इस लेख के बलबूते आप कोई अंतिम राय नहीं बना सकते। जयप्रकाश जी अच्छा लिखते पर यहाँ वे बहुत ही अधिक निराश करते है। इससे कबीर की पंक्तियों का मर्म शर्मसार हुआ है।

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  2. I LIKE ALL POST WRITTEN BY JAYPRAKASH JI

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  4. यह एक सतही लेख हे|लेखक महोदय मनुवादी ग्रंथि से ग्रसित होकर जातिवादी रोग को छुपाने की बात कर रहे हें, छुपाने से रोग और बढता हे रोग का निदान नहीं होता|जातिगत जनगड़ना के आधार पर देश की गवर्नमेंट सामाजिक,आर्थिक समानता लाने के लिए अपनी योजना क्षेत्र विशेष के लिए बना सकती हे|

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  5. @MADAN JI BILKUL THIK KAHA AAPNE........
    LEKIN FIR BHI MAIN JAYPRAKASH CHAUKASE KE LEKHO SE PREM KARATA AAYA HU AUR KARATA RAHUNGA

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  6. @PUKHRAJ JANGID पुखराज जाँगिड said... आप बहुत सही बात कही है इस लेख में कुछ भी नहीं ..............
    इन तथाकथित सभ्य समाज के लोगो को हर उस बात में जातिवाद दीखता है जब भी दलितो के हितों में कोई भी बात होती है.

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