Tuesday, 31 May 2011

विश्व सभ्यता को चौंका देगा यह अनोखा मंदिर!

अंकोरवाट। दुनिया में हर मंदिर की दीवारों पर धार्मिक चित्र बनाए जाते हैं। वहीं थाईलैंड के वट रॉन्ग खुन मंदिर में प्रवेश करते ही आप समझ जाएंगे कि ये कोई साधारण मंदिर नहीं है। यहां दीवारों पर पवित्र जानवर और अंतरिक्ष यान तो बनाए गए हैं, लेकिन साथ ही भविष्य के स्पेसशिप उड़ाते रोबोट्स के अलावा सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन, प्रीडेटर, मैट्रिक्स के नियो जैसे चरित्र या फिर फिल्म अवतार के विचित्र जीव भी बनाए गए हैं।

जानकारी के अनुसार 1997 में कलाकार चालेर्मचाइ कोसितपिपत ने अपने खर्च पर मंदिर को सजाने का बीड़ा उठाया था। पहले यहां धार्मिक तस्वीरें बनाई जानी थीं, लेकिन उन्होंने विदेशी पर्यटकों को भी आकर्षित करने के लिए अपना बुनियादी प्लान बदल दिया। बार्सिलोना के सागड्रा फामिलिया कैथ्रेडल की तरह इस निर्माणाधीन सफेद रंग के बौद्ध और हिंदू मंदिर का निर्माण अगले सौ साल तक चलता रहेगा।

गौतम बुद्ध की पवित्रता दर्शाने के लिए वट रॉन्ग खुन मंदिर को पूरी तरह सफेद बनाया जा रहा है। उनकी बुद्धि दर्शाने के लिए कांच लगाए गए हैं। ये कांच अपनी चमक से पूरी धरती और अंतरिक्ष को रोशन करेंगे। इसके अलावा एक ब्रिज भी बनाया गया है, जिसमें दो हाथ आसमान की तरफ उठे हुए हैं।

उत्साह तरंग का आविष्कार

इस वर्ष का आईपीएल क्रिकेट तमाशा विगत वर्षों की तुलना में कम सफल रहा है, परंतु आदतन लती लोगों की जमात में इस समय नैराश्य छाया है क्योंकि उनकी शामें वीरान हो गई हैं। अनेक लोगों को हमेशा किसी न किसी तमाशे की तरंग की आवश्यकता होती है और इसके अभाव में वे ऊब जाते हैं। फ्रांस के पेरिस में एफिल टॉवर के समय पूरे वर्ष भर के लिए विविध अंतरराष्ट्रीय मनोरंजन के कार्यक्रम रचे गए थे।

विदेशों से सर्कस, नाटक और संगीतज्ञ आमंत्रित किए गए थे। वर्ष के समाप्त होने पर तरंग का लोप हो गया और कुछ ऊब के मारे लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। हमारे यहां भी राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने वाले त्योहारों के समाप्त होने पर लोग सूनापन महसूस करते हैं और उत्सव नदी से तरंग के लोप होने पर किनारों पर भांति-भांति का कचरा पड़ा रहता है और इसमें अदृश्य भावना का कूड़ा भी शामिल रहता है।दरअसल यह तरंग की आवश्यकता इसलिए पड़ती है कि हम रोजमर्रा के जीवन में उत्साह की तरंग पैदा नहीं कर पाते और केवल मशीनवत ही अपना काम करते हैं।

काम में आनंद नहीं ले पाने की असमर्थता के कारण ही काम बोझ लगता है और एक अतिरिक्त तरंग या नशे की आवश्यकता पड़ती है। दफ्तरों में काम करने वाले आला अफसर भी मंगलवार से शनिवार-इतवार की छुट्टी का इंतजार करते हैं और रागरंग में डूबे सप्ताहांत के बाद सोमवार की सुबह ही निराशा से घर जाते हैं। वे एक तरह का हैंगओवर महसूस करते हैं।

छुट्टी का नशा बहुत धीरे-धीरे छंटता है। रोजमर्रा के जीवन में चीजों का दोहराव होता है, जिससे ऊब पैदा होती है, परंतु अगर हम कल्पनाशीलता और प्रेम के भाव के साथ इस दोहराव को भी रोचक बना सकें तो किसी अतिरिक्त तरंग या अतिरिक्त रिश्ते की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। आजकल एक नए टीवी सीरियल के प्रोमो आ रहे हैं, जिसमें विवाह के पश्चात प्रेम के विकास की कहानी है। यह बहुत ही रोचक सीरियल बनने की संभावना है।

दांपत्य जीवन के साधारण-से कार्यों में भी प्रच्छन्न काम भावना निहित है। निगाह में खोज के उत्साह की कमी से दोहराव और ऊब पैदा हो रही है। जीवन में थोड़े से अभिनय की आवश्यकता होती है और अभिनय में जीवन होना भी जरूरी है। हर व्यक्ति में लेखन की संभावना है और इस आसन्न प्रतिभा को खोजकर तराशने का काम रोजमर्रा के जीवन में कथा रचने से किया जा सकता है। सारे सामान्य वार्तालाप को हास्य और रहस्य से संवारा जा सकता है। फिल्मकारों ने विगत वर्षों में युवा प्रेम की कहानियां इतनी रची हैं, मानो किसी और अवस्था में प्रेम होता ही नहीं या दांपत्य प्रेमहीन है।

जीवन का हर दिन एक एकांकी है, परंतु हम उन रोचक तत्वों को अनदेखा करते हैं। प्राय: ‘लल्लू यह जीना भी कोई जीना है’ के मनोवैज्ञानिक दबाव को हम स्वयं ही पैदा करते हैं। सारे काम मशीनवत करते रहना हमें मनुष्य ही नहीं रहने देता। रोजमर्रा के छोटे से छोटे काम रस लेकर करने से सारी क्रियाएं जीवंत हो जाती हैं। नहाना केवल नहाना न होकर गंगा-स्नान भी हो सकता है। भावना का निवेश करने में हम कंजूस हो गए हैं और संचय करने से ये दुगुनी नहीं होती, वरन नष्ट हो जाती है। जैसा जीवन में पैदा किया हुआ धन आप अपने साथ नहीं ले जाते, वैसे ही संचित एवं अनाभिव्यक्त भावना का कोष भी यहीं धरा रह जाता है।

आर बाल्की की ‘चीनी कम’ और ‘पा’ जैसी फिल्मों में सारे पात्र रोजमर्रा के जीवन में ही हास्य एवं रोचकता पैदा करते नजर आते हैं और चुहल तथा शरारत भी खूब जमकर उभरती है। मसलन ‘चीनी कम’ में तब्बू बूढ़े अमिताभ को दरख्त तक दौडऩे का निवेदन करती है और दौड़कर लौटने पर ऐसा कराने का कारण पूछने पर कहती है कि वह अपने प्रेमी का दमखम देखना चाहती थी। बहरहाल अतिरिक्त तरंग पर निर्भर करना ही अनुचित है।

क्या देह गंध या इच्छा फैक्टरी में बनती है?

आजकल विज्ञापन फिल्मों की एक श्रंखला चल रही है, जिसमें दांपत्य जीवन के सुख के साथ चॉकलेट बेची जा रही है। मसलन एक फिल्म में पत्नी बाथरूम से बाल सुखाते हुए कमरे में प्रवेश करती है, जहां पति उससे पूछता है कि खाने में क्या बना है और साधारण-सी सब्जी पके होने की बात पता चलने पर पूछता है कि मीठे में क्या है। पत्नी की हल्की-सी मुस्कान में निमंत्रण है भोजन के पश्चात की क्रिया का और कोई अभद्र इशारा नहीं है। पूरी तरह से साड़ी में ढंकी महिला केवल मुस्कान से इच्छा जगाती है। यह सेंसुअसनेस का प्रदर्शन है।

दूसरी ओर लंबे समय से एक डियोडरेंट के विज्ञापन आ रहे हैं, जिसमें इस खुशबू को इस्तेमाल करने वाले पुरुष के पीछे स्त्रियां निर्लज्ज होकर भाग रही हैं। इस श्रंखला के एक विज्ञापन में एक नवविवाहिता अपने कमरे की खिड़की के पास खड़ी है। सामने वाली खिड़की में एक पुरुष यह डियोडरेंट लगाता है, नवविवाहिता इस परपुरुष की ओर मंत्रमुग्ध होकर देखती है और अपने जेवर इत्यादि उतारने लगती है।

यह भी एक निमंत्रण ही है, परंतु यह अभद्र और अश्लील होते हुए रिश्तों की परिभाषाओं को भंग करता है। एक तरफ दांपत्य जीवन में सूक्ष्म निशा निमंत्रण है, दूसरी ओर नवविवाहिता बलात्कार को प्रोत्साहित करती सी लगती है। खुशबू की विज्ञापन श्रंखला में शरीर की गंध मिटाने वाले इस प्रोडक्ट का विज्ञापन एक एफ्रोडिजिएक अर्थात कामेच्छा बढ़ाने की कृत्रिम दवा की तरह किया जा रहा है।

सरकार ने डियोडरेंट विज्ञापन श्रंखला को पांच दिनों में टेलीविजन से हटाए जाने का आदेश दिया है, जिस पर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तमाम हितैषी लामबंद होते नजर आ रहे हैं। सरकार को नैतिकता के संरक्षक के रूप में कोई भी नहीं देखना चाहता, परंतु अश्लीलता और निर्लज्जता की मार्केटिंग के खिलाफ कदम उठाया ही जाना चाहिए।

खाने के बाद मीठे की श्रंखला में मौन निमंत्रण है, वह भी केवल एक मुस्कान के द्वारा; जबकि डियोडरेंट के विज्ञापन में मांस का बाजार और इच्छाओं का नग्न नृत्य ही प्रदर्शित किया जा रहा है।यह सच है कि नैतिकता के स्वयंभू हवलदार आतंक फैलाते हैं और हुल्लड़बाजी अब एक व्यवसाय के रूप में विकसित हो चुकी है।

सरकार को इस भूमिका में कतई सहन नहीं किया जाना चाहिए, परंतु जब प्रकरण इतना स्पष्ट है कि इसके पक्ष में कुछ भी नहीं कहा जा सकता, तब सरकार द्वारा लगाए गए प्रतिबंध का स्वागत किया जाना चाहिए। केवल छद्म बौद्धिकता के तकाजे के तहत विरोध की खातिर विरोध करना अर्थहीन कसरत है।

यह भी सच है कि क्या श्लील है और क्या अश्लील, यह तय करना कठिन है और वर्ष 1933 में जेम्स जॉयस की ‘यूलिसिस’ पर दिया गया जज वूल्से का फैसला महत्वपूर्ण था कि अश्लीलता का निर्धारण रचना के पूरे संदर्भ को देखकर सृजनकर्ता की नीयत का आकलन करके किया जाना चाहिए।

इस प्रकरण में डियोडरेंट का विज्ञापन सभी हदों को न केवल पार करता है, वरन वह प्रोडक्ट में जो तत्व नहीं है, उसके झूठ का भी प्रतिनिधित्व करता है। सारी दुनिया यह स्वीकार करती है कि एफ्रोडिजिएक एक भ्रम है और इच्छा का केंद्र मनुष्य का मस्तिष्क है। बदन में इच्छा द्वारा उत्पन्न एक सुगंध जरूर कुछ कारगर हो सकती है, परंतु देह गंध को फैक्टरी में प्रोडक्ट की तरह बनाया नहीं जा सकता।

विज्ञापनों पर नियंत्रण के लिए एक संस्था है, जिसमें कदाचित ऐसे लोग चुन लिए गए हैं, जिनकी निर्णय शक्ति पर संदेह किया जा सकता है। अखबारों की अपनी अनुशासन संस्था है। जहां कहीं भी लोकप्रिय मत की गणना से निर्णय होते हैं, वहां कुछ घपले संभव हैं, क्योंकि लोकप्रियता के रसायन में निहित स्वार्थ शामिल हो सकते हैं।

ALFRED HITCHCOCK ..... A BRIEF BIOGRAPHY

Born As: Alfred Joseph Hitchcock
Born: August 13, 1899, Leytonstone, England
Died
: April 28, 1980 from Liver Failure and Heart Problems
Education
: St. Ignatius College, London; School of Engineering and Navigation
(mechanics, electricity, acoustics, navigation); University of London (art)

By Charles Ramirez Berg

ALFRED HITCHCOCK IS THE INSPIRATION FOR LOTS OF THIS DAYS DIRCTORS... BUT WE CANT HAVE ANOTHER HITCHCOCK AGAIN..... WE LOST HIM BUT HE IS ALIVE THROUGH HIS MASTER PICECES.... WE LOVE YOU ALFRED HITCHCOCK....
The acknowledged master of the thriller genre he virtually invented, Alfred Hitchcock was also a brilliant technician who deftly blended sex, suspense and humor. He began his filmmaking career in 1919 illustrating title cards for silent films at Paramount's Famous Players-Lasky studio in London. There he learned scripting, editing and art direction, and rose to assistant director in 1922. That year he directed an unfinished film, No. 13 or Mrs. Peabody . His first completed film as director was The Pleasure Garden (1925), an Anglo-German production filmed in Munich. This experience, plus a stint at Germany's UFA studios as an assistant director, help account for the Expressionistic character of his films, both in their visual schemes and thematic concerns. The Lodger (1926), his breakthrough film, was a prototypical example of the classic Hitchcock plot: an innocent protagonist is falsely accused of a crime and becomes involved in a web of intrigue.
An early example of Hitchcock's technical virtuosity was his creation of "subjective sound" for Blackmail (1929), his first sound film. In this story of a woman who stabs an artist to death when he tries to seduce her, Hitchcock emphasized the young woman's anxiety by gradually distorting all but one word "knife" of a neighbor's dialogue the morning after the killing. Here and in Murder! (1930), Hitchcock first made explicit the link between sex and violence.
The Man Who Knew Too Much (1934), a commercial and critical success, established a favorite pattern: an investigation of family relationships within a suspenseful story. The 39 Steps (1935) showcases a mature Hitchcock; it is a stylish and efficiently told chase film brimming with exciting incidents and memorable characters. Despite their merits, both Secret Agent (1936) and Sabotage (1936) exhibited flaws Hitchcock later acknowledged and learned from. According to his theory, suspense is developed by providing the audience with information denied endangered characters. But to be most effective and cathartic, no harm should come to the innocent as it does in both of those films. The Lady Vanishes (1938), on the other hand, is sleek, exemplary Hitchcock: fast-paced, witty, and magnificently entertaining.
Hitchcock's last British film, Jamaica Inn (1939), and his first Hollywood effort, Rebecca (1940), were both handsomely mounted though somewhat uncharacteristic works based on novels by Daphne du Maurier. Despite its somewhat muddled narrative, Foreign Correspondent (1940) was the first Hollywood film in his recognizable style. Suspicion (1941), the story of a woman who thinks her husband is a murderer about to make her his next victim, was an exploration of family dynamics; its introduction of evil into the domestic arena foreshadowed Shadow of a Doubt (1943), Hitchcock's early Hollywood masterwork. One of his most disturbing films, Shadow was nominally the story of a young woman who learns that a favorite uncle is a murderer, but at heart it is a sobering look at the dark underpinnings of American middle-class life. Fully as horrifying as Uncle Charlie's attempts to murder his niece was her mother's tearful acknowledgment of her loss of identity in becoming a wife and mother. "You know how it is," she says, "you sort of forget you're you. You're your husband's wife." In Hitchcock, evil manifests itself not only in acts of physical violence, but also in the form of psychological, institutionalized and systemic cruelty.
Hitchcock would return to the feminine sacrifice-of-identity theme several times, most immediately with the masterful Notorious (1946), a perverse love story about an FBI agent who must send the woman he loves into the arms of a Nazi in order to uncover an espionage ring. Other psychological dramas of the late 1940s were Spellbound (1945), The Paradine Case (1948), and Under Capricorn (1949). Both Lifeboat (1944) and Rope (1948) were interesting technical exercises: in the former, the object was to tell a film story within the confines of a small boat; in Rope, Hitchcock sought to make a film that appeared to be a single, unedited shot. Rope shared with the more effective Strangers on a Train (1951) a villain intent on committing the perfect murder as well as a strong homoerotic undercurrent.
During his most inspired period, from 1950 to 1960, Hitchcock produced a cycle of memorable films which included minor works such as I Confess (1953), the sophisticated thrillers Dial M for Murder (1954) and To Catch a Thief (1955), a remake of The Man Who Knew Too Much (1956) and the black comedy The Trouble with Harry (1955). He also directed several top-drawer films like Strangers on a Train and the troubling early docudrama (1956), a searing critique of the American justice system.
His three unalloyed masterpieces of the period were investigations into the very nature of watching cinema. Rear Window (1954) made viewers voyeurs, then had them pay for their pleasure. In its story of a photographer who happens to witness a murder, Hitchcock provocatively probed the relationship between the watcher and the watched, involving, by extension, the viewer of the film. Vertigo (1958), as haunting a movie as Hollywood has ever produced, took the lost-feminine-identity theme of Shadow of a Doubt and Notorious and identified its cause as male fetishism.
North by Northwest (1959) is perhaps Hitchcock's most fully realized film. From a script by Ernest Lehman, with a score (as usual) by Bernard Herrmann, and starring Cary Grant and Eva Marie Saint, this quintessential chase movie is full of all the things for which we remember Alfred Hitchcock: ingenious shots, subtle male-female relationships, dramatic score, bright technicolor, inside jokes, witty symbolism and above all masterfully orchestrated suspense.
Psycho (1960) is famed for its shower murder sequence a classic model of shot selection and editing which was startling for its (apparent) nudity, graphic violence and its violation of the narrative convention that makes a protagonist invulnerable. Moreover, the progressive shots of eyes, beginning with an extreme close-up of the killer's peeping eye and ending with the open eye of the murder victim, subtly implied the presence of a third eye the viewer's.
Later films offered intriguing amplifications of his main themes. The Birds (1963) presented evil as an environmental fact of life. Marnie (1964), a psychoanalytical thriller along the lines of Spellbound showed how a violent, sexually tinged childhood episode turns a woman into a thief, once again associating criminality with violence and sex. Most notable about Torn Curtain (1966), an espionage story played against a cold war backdrop, was its extended fight-to-the death scene between the protagonist and a Communist agent in the kitchen of a farm house. In it Hitchcock reversed the movie convention of quick, easy deaths and showed how difficult and how momentous the act of killing really is.
Hitchcock's disappointing Topaz (1969), an unwieldy, unfocused story set during the Cuban missile crisis, was devoid of his typical narrative economy and wit. He returned to England to produce Frenzy (1972), a tale much more in the Hitchcock vein, about an innocent man suspected of being a serial killer. His final film, Family Plot (1976), pitted two couples against one another: a pair of professional thieves versus a female psychic and her working-class lover. It was a fitting end to a body of work that demonstrated the eternal symmetry of good and evil.

I WILL BE BACK WITH MORE ARTICLE FROM ALL AROUND THE GLOBE RELETED WITH SUCH GREAT PERSONALITIES...

Monday, 30 May 2011

बाल यौन उत्पीड़न का घिनौना सच - प्रदीप कुमार

बीते शुक्रवार को राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के दो स्कूलों से शर्मसार करने वाली घटनाएं सामने आईं। पहली घटना नोएडा के सेक्टर-33 स्थित एक स्कूल की है, जहां बच्चों ने आरोप लगाया है कि एक शिक्षक उनके कपड़े उतरवाकर अश्लील हरकतें करता था। दूसरा मामला गाजियाबाद के नगर-3 स्थित एक प्ले स्कूल का है, जिसमें एक डांस टीचर द्वारा बच्चों से अश्लील हरकत करने का मामला प्रकाश में आया है। ये दोनों घटनाएं बताती हैं कि हमारे समाज में बच्चों का यौन शोषण कहीं भी हो सकता है और कोई भी यह कर सकता है।

देश के पर्यटन केंद्र बच्चों के शिकार के ठिकाने के तौर पर पहले से मशहूर हो ही रहे थे, अब यह अपराध खुले आकाश से लेकर चारदीवारियों के पीछे हर जगह हो रहा है। यकीन नहीं होता है, लेकिन हकीकत यही है कि देश का हर दूसरा मासूम किसी न किसी यौन उत्पीड़न का शिकार है। महिला और बाल विकास मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक देश में आधे से ज्यादा बच्चे (53.22 फीसदी) यौन उत्पीड़न के शिकार हैं।

देश भर में बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के मामले लगातार इसलिए भी बढ़े हैं, क्योंकि इस पर अंकुश लगाने के लिए देश में कोई खास कानून नहीं है। ऐसे मामलों की सुनवाई भारतीय न्याय संहिता (आईपीसी) के तहत होती है, जिसमें महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों पर तो कठोर कार्रवाई की व्यवस्था है, लेकिन बच्चों के साथ यौन अपराध पर ठोस कार्रवाई में यह कारगर नहीं हो पाता, क्योंकि बाल यौन उत्पीड़न के कई रूप हैं और कई तो मौजूदा कानून के तहत अपराध में भी नहीं गिने जाते। खासकर लड़कों के साथ हुए यौन अपराध के मामलों को इस कानून के तहत गंभीरता से नहीं लिया जाता। लेकिन यह देखा गया है कि लड़के और लड़कियों का यौन शोषण लगभग बराबर ही होता है। स्कूलों और स्वास्थ्य केंद्रों में यौन शोषण के लगातार बढ़ते मामले और पर्यटन इलाकों में भी ऐसे मामलों के सामने आने से अलग से कानून की मांग रही है। कानून मंत्रालय ने इस पर लगाम कसने के उद्देश्य से एक मसौदा तैयार किया है।

प्रस्तावित विधेयक में बाल यौन अपराध की संगीनता को देखते हुए इसे पांच स्तरों में बांटा गया है, जिसमें मौखिक छींटाकशी से लेकर अप्राकृतिक यौन उत्पीड़न तक को शामिल किया गया है। इसके तहत तीन साल से लेकर उम्रकैद की सजा के प्रावधान किए गए हैं। शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न को गंभीर अपराध की श्रेणी में रखा गया है। प्रस्तावित विधेयक में बाल यौन अपराध लिंग भेदभाव से परे है। इसमें इस बात का पूरा खयाल रखा गया है कि पीड़ितों की पहचान गोपनीय रहे और उन्हें जल्द से जल्द न्याय मिले। कानून के लागू होने की सूरत में देश के प्रत्येक जिले में विशेष अदालत और अभियोजन पक्ष का होना सुनिश्चित किया जाएगा। इसके तहत पीड़ितों से एक महीने के अंदर सारे सबूतों का संज्ञान लिया जाएगा और हर हाल में एक साल के अंदर सुनवाई पूरी होगी।

इतना ही नहीं, आजकल जिस तरह से इंटरनेट पर बच्चों के यौन उत्पीड़न के मामले बढ़ रहे हैं, उसे भी मसौदे में शामिल किया गया है। पिछले दिनों मुंबई में एक सर्वेक्षण में यह बात सामने आई है कि इंटरनेट का उपयोग करने वाले प्रत्येक 10 में 7 बच्चे यौन उत्पीड़न का शिकार बन सकते हैं। जिस तरह से इंटरनेट का उपयोग देशभर में बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इसकी चपेट में आने वाले बच्चों की संख्या बढ़ेगी। प्रस्तावित कानून के तहत बाल यौन उत्पीड़न मामले की सुनवाई करने वाली विशेष अदालतों में ही इनफार्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट के तहत आने वाले बाल यौन उत्पीड़न मामलों की सुनवाई होगी।

प्रस्तावित मसौदे में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ यौन उत्पीड़न के मामलों को अपराध माना जाएगा, हालांकि इसमें इसका प्रावधान भी है कि 16 साल से अधिक उम्र का बच्चा आपसी सहमति से किसी से भी वैध शारीरिक संबंध बना सकता है। बाल यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में अपराधी निकट संबंधी, परिचित और जान पहचान वाले लोग होते हैं। ऐसे में जरूरी है कि माता-पिता में बाल यौन उत्पीड़न को लेकर जागरूकता हो और वे अपने बच्चों को मानसिक तौर पर इसका विरोध करना सिखाएं।मसौदे के मुताबिक बाल यौन उत्पीड़न के आरोपियों को खुद के निदरेष होने का सबूत देना होगा। इस लिहाज से यह कानून एक कारगर कदम हो सकता है।

'स्लमडॉग मिलेनियर' को ऑस्कर अवार्ड मिला नहीं बल्कि ख़रीदा गया'


फिल्म संगीतकार इस्माइल दरबार ने यह आरोप लगाकर सनसनी फैला दी है कि 2009 में आई 'स्लमडॉग मिलेनियर' को ऑस्कर अवार्ड मिला नहीं बल्कि ख़रीदा गया था|

उन्होंने ऐसा कहकर नए विवाद को जन्म तो दे ही दिया है और साथ में 'स्लमडॉग मिलेनियर' में संगीत दे चुके जाने माने संगीतकार ए.आर रहमान पर सीधा आरोप लगाया है|रहमान ने इस फिल्म के लिए बेस्ट ओरिजनल स्कोर और बेस्ट ओरिजनल सॉन्ग का ख़िताब जीता|

इस्माइल ने नागपुर में एक प्रेस कांफ्रेंस में यह बात मीडिया के सामने कहकर सनसनी फैला दी|उन्होंने कहा कि उन्हें समझ नहीं आता कि कैसे इस फिल्म को इतना प्रतिष्ठित पुरस्कार मिल गया|फिल्म के संगीत में ऐसा कुछ नहीं था जिसके लिए इसे यह अवार्ड मिले|

Sunday, 29 May 2011

WHAT ARE WORMHOLES? EXPLAINED.

What are worm holes?
A wormhole is a pathway from one part of space and time to another more distant location. You might think of it as a shortcut through space that saves you from having to travel the normal distance between two points.
A worm hole is a mathematical solution to Einstein's relativistic equation for gravity in which two parts of space-time may be joined together. Unlike black holes, they have no singularities at least in the 'vacuum solution', but certain rotating 'Kerr-Nordstrom' black holes may serve the same worm hole-like function.
Many science fiction authors like to use them to allow spacecraft to travel quickly from place to place in our universe. But all of these ideas are based on 'pure math' descriptions of how they might work, and as you know, nature is often much messier than any idealistic, abstract rendering of it. There are no perfectly straight lines in the universe, and there are not likely to be wormholes either.


Definition

The basic notion of an intra-universe wormhole is that it is a compact region of spacetime whose boundary is topologically trivial but whose interior is not simply connected. Formalizing this idea leads to definitions such as the following, taken from Matt Visser's Lorentzian Wormholes.
If a Minkowski spacetime contains a compact region Ω, and if the topology of Ω is of the form Ω ~ R x Σ, where Σ is a three-manifold of the nontrivial topology, whose boundary has topology of the form dΣ ~ S2, and if, furthermore, the hypersurfaces Σ are all spacelike, then the region Ω contains a quasipermanent intra-universe wormhole.
Characterizing inter-universe wormholes is more difficult. For example, one can imagine a 'baby' universe connected to its 'parent' by a narrow 'umbilicus'. One might like to regard the umbilicus as the throat of a wormhole, but the spacetime is simply connected. For this reason wormholes have been defined geometrically, as opposed to topologically, as regions of spacetime that constrain the incremental deformation of closed surfaces. For example, in Enrico Rodrigo’s The Physics of Stargates a wormhole is defined informally as
a region of spacetime containing a "world tube" (the time evolution of a closed surface) that cannot be continuously deformed (shrunk) to a world line [(the time evolution of a point)].


Wormhole

From Wikipedia, the free encyclopedia
Embedded diagram of a Schwarzschild wormhole
In physics, a wormhole is a hypothetical topological feature of spacetime that would be, fundamentally, a "shortcut" through spacetime. For a simple visual explanation of a wormhole, consider spacetime visualized as a two-dimensional (2D) surface. If this surface is folded along a third dimension, it allows one to picture a wormhole "bridge". (Please note, though, that this is merely a visualization displayed to convey an essentially unvisualisable structure existing in 4 or more dimensions. The parts of the wormhole could be higher-dimensional analogues for the parts of the curved 2D surface; for example, instead of mouths which are circular holes in a 2D plane, a real wormhole's mouths could be spheres in 3D space.) A wormhole is, in theory, much like a tunnel with two ends each in separate points in spacetime, or it can be also known as two connecting black holes.
There is no observational evidence for wormholes, but on a theoretical level there are valid solutions to the equations of the theory of general relativity which contain wormholes. The first type of wormhole solution discovered was the Schwarzschild wormhole which would be present in the Schwarzschild metric describing an eternal black hole, but it was found that this type of wormhole would collapse too quickly for anything to cross from one end to the other. Wormholes which could actually be crossed, known as traversable wormholes, would only be possible if exotic matter with negative energy density could be used to stabilize them. (Many physicists such as Stephen Hawking,[1] Kip Thorne,[2] and others[3][4][5] believe that the Casimir effect is evidence that negative energy densities are possible in nature). Physicists have also not found any natural process which would be predicted to form a wormhole naturally in the context of general relativity, although the quantum foam hypothesis is sometimes used to suggest that tiny wormholes might appear and disappear spontaneously at the Planck scale,[6][7] and stable versions of such wormholes have been suggested as dark matter candidates.[8][9] It has also been proposed that if a tiny wormhole held open by a negative-mass cosmic string had appeared around the time of the Big Bang, it could have been inflated to macroscopic size by cosmic inflation.[10]
The American theoretical physicist John Archibald Wheeler coined the term wormhole in 1957; however, in 1921, the German mathematician Hermann Weyl already had proposed the wormhole theory, in connection with mass analysis of electromagnetic field energy.[11]
This analysis forces one to consider situations...where there is a net flux of lines of force, through what topologists would call "a handle" of the multiply-connected space, and what physicists might perhaps be excused for more vividly terming a "wormhole".
—John Wheeler in Annals of Physics

Schwarzschild wormholes

Lorentzian wormholes known as Schwarzschild wormholes or Einstein-Rosen bridges are bridges between areas of space that can be modeled as vacuum solutions to the Einstein field equations, and which are now understood to be intrinsic parts of the maximally extended version of the Schwarzschild metric describing an eternal black hole with no charge and no rotation. Here, "maximally extended" refers to the idea that the spacetime should not have any "edges": for any possible trajectory of a free-falling particle (following a geodesic) in the spacetime, it should be possible to continue this path arbitrarily far into the particle's future or past, unless the trajectory hits a gravitational singularity like the one at the center of the black hole's interior. In order to satisfy this requirement, it turns out that in addition to the black hole interior region which particles enter when they fall through the event horizon from the outside, there must be a separate white hole interior region which allows us to extrapolate the trajectories of particles which an outside observer sees rising up away from the event horizon. And just as there are two separate interior regions of the maximally extended spacetime, there are also two separate exterior regions, sometimes called two different "universes", with the second universe allowing us to extrapolate some possible particle trajectories in the two interior regions. This means that the interior black hole region can contain a mix of particles that fell in from either universe (and thus an observer who fell in from one universe might be able to see light that fell in from the other one), and likewise particles from the interior white hole region can escape into either universe. All four regions can be seen in a spacetime diagram which uses Kruskal–Szekeres coordinates, as discussed and illustrated on the page White Holes and Wormholes.
In this spacetime, it is possible to come up with coordinate systems such that if you pick a hypersurface of constant time (a set of points that all have the same time coordinate, such that every point on the surface has a space-like separation, giving what is called a 'space-like surface') and draw an "embedding diagram" depicting the curvature of space at that time (see the discussion of embedding diagrams on this page), the embedding diagram will look like a tube connecting the two exterior regions, known as an "Einstein-Rosen bridge". For example, see the diagrams on this page which show the maximally extended Schwarzschild solution in Kruskal–Szekeres coordinates along with white hypersurfaces of constant time drawn on (time in some other coordinate system besides Kruskal–Szekeres coordinates, since a hypersurface of constant Kruskal–Szekeres time would just look like a horizontal line when drawn in a Kruskal–Szekeres diagram), and the corresponding embedding diagram for that hypersurface. Note that the Schwarzschild metric describes an idealized black hole that exists eternally from the perspective of external observers; a more realistic black hole that forms at some particular time from a collapsing star would require a different metric. When the infalling stellar matter is added to a diagram of a black hole's history, it removes the part of the diagram corresponding to the white hole interior region, along with the part of the diagram corresponding to the other universe.[12]
The Einstein-Rosen bridge was discovered by Albert Einstein and his colleague Nathan Rosen, who first published the result in 1935. However, in 1962 John A. Wheeler and Robert W. Fuller published a paper showing that this type of wormhole is unstable, and that it will pinch off too quickly for light (or any particle moving slower than light) that falls in from one exterior region to make it to the other exterior region.
Before the stability problems of Schwarzschild wormholes were apparent, it was proposed that quasars were white holes forming the ends of wormholes of this type.[citation needed]
While Schwarzschild wormholes are not traversable, their existence inspired Kip Thorne to imagine traversable wormholes created by holding the 'throat' of a Schwarzschild wormhole open with exotic matter (material that has negative mass/energy).

Metrics

Theories of wormhole metrics describe the spacetime geometry of a wormhole and serve as theoretical models for time travel. An example of a (traversable) wormhole metric is the following:
ds^2= - c^2 dt^2 + dl^2 + (k^2 + l^2)(d \theta^2 + \sin^2 \theta \, d\phi^2).
One type of non-traversable wormhole metric is the Schwarzschild solution (see the first diagram):
ds^2= - c^2 \left(1 - \frac{2GM}{rc^2}\right)dt^2 + \frac{dr^2}{1 - \frac{2GM}{rc^2}} + r^2(d \theta^2 + \sin^2 \theta \, d\phi^2).

Inter-Universe travel

A possible resolution to the paradoxes resulting from wormhole-enabled time travel rests on the Many Worlds Interpretation of quantum mechanics. In 1991 David Deutsch showed that quantum theory is fully consistent (in the sense that the so-called density matrix can be made free of discontinuities) in spacetimes with closed timelike curves.[21] Accordingly, the destructive positive feedback loop of virtual particles circulating through a wormhole time machine, a result indicated by semi-classical calculations, is averted. A particle returning from the future does not return to its universe of origination but to a parallel universe. This suggests that a wormhole time machine with an exceedingly short time jump is a theoretical bridge between contemporaneous parallel universes.[22] Because a wormhole time-machine introduces a type of nonlinearity into quantum theory, this sort of communication between parallel universes is consistent with Joseph Polchinski’s discovery of an “Everett phone” in Steven Weinberg’s formulation of nonlinear quantum mechanics.[2


Time travel

The theory of general relativity predicts that if traversable wormholes exist, they could allow time travel.[2] This would be accomplished by accelerating one end of the wormhole to a high velocity relative to the other, and then sometime later bringing it back; relativistic time dilation would result in the accelerated wormhole mouth aging less than the stationary one as seen by an external observer, similar to what is seen in the twin paradox. However, time connects differently through the wormhole than outside it, so that synchronized clocks at each mouth will remain synchronized to someone traveling through the wormhole itself, no matter how the mouths move around.[20] This means that anything which entered the accelerated wormhole mouth would exit the stationary one at a point in time prior to its entry.
For example, consider two clocks at both mouths both showing the date as 2000. After being taken on a trip at relativistic velocities, the accelerated mouth is brought back to the same region as the stationary mouth with the accelerated mouth's clock reading 2005 while the stationary mouth's clock read 2010. A traveler who entered the accelerated mouth at this moment would exit the stationary mouth when its clock also read 2005, in the same region but now five years in the past. Such a configuration of wormholes would allow for a particle's world line to form a closed loop in spacetime, known as a closed timelike curve.
It is thought that it may not be possible to convert a wormhole into a time machine in this manner; the predictions are made in the context of general relativity, but general relativity does not include quantum effects. Some analyses using the semiclassical approach to incorporating quantum effects into general relativity indicate that a feedback loop of virtual particles would circulate through the wormhole with ever-increasing intensity, destroying it before any information could be passed through it, in keeping with the chronology protection conjecture. This has been called into question by the suggestion that radiation would disperse after traveling through the wormhole, therefore preventing infinite accumulation. The debate on this matter is described by Kip S. Thorne in the book Black Holes and Time Warps, and a more technical discussion can be found in The quantum physics of chronology protection by Matt Visser. There is also the Roman ring, which is a configuration of more than one wormhole. This ring seems to allow a closed time loop with stable wormholes when analyzed using semiclassical gravity, although without a full theory of quantum gravity it is uncertain whether the semiclassical approach is reliable in this case.

Faster-than-light travel

The impossibility of faster-than-light relative speed only applies locally. Wormholes allow superluminal (faster-than-light) travel by ensuring that the speed of light is not exceeded locally at any time. While traveling through a wormhole, subluminal (slower-than-light) speeds are used. If two points are connected by a wormhole, the time taken to traverse it would be less than the time it would take a light beam to make the journey if it took a path through the space outside the wormhole. However, a light beam traveling through the wormhole would always beat the traveler. As an analogy, running around to the opposite side of a mountain at maximum speed may take longer than walking through a tunnel crossing it.

Raychaudhuri's theorem and exotic matter

To see why exotic matter is required, consider an incoming light front traveling along geodesics, which then crosses the wormhole and re-expands on the other side. The expansion goes from negative to positive. As the wormhole neck is of finite size, we would not expect caustics to develop, at least within the vicinity of the neck. According to the optical Raychaudhuri's theorem, this requires a violation of the averaged null energy condition. Quantum effects such as the Casimir effect cannot violate the averaged null energy condition in any neighborhood of space with zero curvature,[16] but calculations in semiclassical gravity suggest that quantum effects may be able to violate this condition in curved spacetime.[17] Although it was hoped recently that quantum effects could not violate an achronal version of the averaged null energy condition,[18] violations have nevertheless been found,[19] thus eliminating a basis on which traversable wormholes could be rendered unphysical.


Traversable wormholes


Lorentzian traversable wormholes would allow travel from one part of the universe to another part of that same universe very quickly or would allow travel from one universe to another. The possibility of traversable wormholes in general relativity was first demonstrated by Kip Thorne and his graduate student Mike Morris in a 1988 paper. For this reason, the type of traversable wormhole they proposed, held open by a spherical shell of exotic matter, is referred to as a Morris-Thorne wormhole. Later, other types of traversable wormholes were discovered as allowable solutions to the equations of general relativity, including a variety analyzed in a 1989 paper by Matt Visser, in which a path through the wormhole can be made where the traversing path does not pass through a region of exotic matter. However, in the pure Gauss-Bonnet theory (a modification to general relativity involving extra spatial dimensions which is sometimes studied in the context of brane cosmology) exotic matter is not needed in order for wormholes to exist—they can exist even with no matter.[14] A type held open by negative mass cosmic strings was put forth by Visser in collaboration with Cramer et al.,[10] in which it was proposed that such wormholes could have been naturally created in the early universe.
Wormholes connect two points in spacetime, which means that they would in principle allow travel in time, as well as in space. In 1988, Morris, Thorne and Yurtsever worked out explicitly how to convert a wormhole traversing space into one traversing time.[2] However, according to general relativity it would not be possible to use a wormhole to travel back to a time earlier than when the wormhole was first converted into a time machine by accelerating one of its two mouths.[15]


फेसबुक के संस्थापक रोज करते हैं एक हत्या!


वाशिंगटन। फेसबुक के संस्थापक मार्क जुकरबर्ग के बारे में इस सच को सुन आप भी चौक जाएंगे। वह केवल उसी जानवर का मांस खाते हैं जिसे उन्होने खुद मारा हो। दरअसल, वह यह साबित करना चाहते हैं कि उनके जिंदा रहने के बदले रोज एक जीव को अपनी जान गंवानी पड़ती है। 


इस 27 वर्षीय करोड़पति ने फार्चून पत्रिका को बताते हुए कहा कि वैसे तो मैं रोज ही काफी हेल्दी खाना खाता हूं लेकिन, रोज मिलने वाली चीजों को दरअसल हम हल्के में लेना शुरू कर देते हैं, इसलिए मैं दुनिया को यह बताना चाहता हूं कि दरअसल, जो कुछ हम रोज खाते हैं उसके लिए किसी न किसी को भारी कीमत चुकानी पड़ती है। 


जुकरबर्ग को जो भी जानवर पसंद होता है उसे कसाई के यहां पहुंचा दिया जाता है। अगर उसका मांस उनके खाने की मात्रा से अधिक होता है तो उसे उनकी गर्लफ्रेंड के पास भेज दिया जाता है। 


जुकरबर्ग ने अपनी इस आदत को अपने फेसबुक पेज पर भी शेयर किया है। इसमें उन्होने उस मुर्गे की तस्वीर भी पोस्ट की है जिसे उन्होने मारा और उससे बने डिसेज की भी फोटो यहां पर देखी जा सकती है। 


उन्होने कहा कि इस साल मैं वास्तव में शाकाहारी बन चुका हूं क्योंकि अब मैं केवल उसी जानवर का मांस खाता हूं जिसे मैं खुद मारता हूं।

राज कपूर : जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां!


दो जून, 1988 को मात्र चौंसठ वर्ष की आयु में राज कपूर की मृत्यु हुई और उस समय तक वे हिना के तीन गीत रिकॉर्ड कर चुके थे। पटकथा पर निरंतर काम चल रहा था। राज कपूर निर्माण के साथ ही पटकथा में परिवर्तन करते रहते थे। दरअसल कागज पर लिखी पटकथा की जगह वे अपने निरंतर सृजनशील दिमाग में अलिखित पटकथा पर फिल्म रचते थे। दिमाग में कोई भूली-बिसरी ध्वनि गूंजती, तो उसके लिए नया दृश्य रचते थे। इस मायने में उन्हें सिनेमा का त्वरित रचनाकार या आशु कवि भी मान सकते हैं।

सिनेमा के इस औघड़ बाबा की मृत्यु उनकी न बनाई जाने वाली ‘जोकर दो’ के क्लाइमैक्स की तरह थी। सबसे सफल फिल्म प्रदर्शित हुई थी, शिखर सम्मान मिल रहा था, अमेरिका के विभिन्न शहरों में फिल्मों का पुनरावलोकन हो रहा था, गोया कि जोकर जीवन के अन्यतम तमाशे के समय प्राण तज रहा था, जैसा ‘जोकर’ भाग एक में जोकर के पिता की मृत्यु दर्शक देख चुके थे।

राज कपूर के लिए फाल्के पुरस्कार का विशेष महत्व यह था कि वे अपने पिता पृथ्वीराज कपूर को दिया फाल्के पुरस्कार उनकी मृत्यु के बाद स्वयं लेने आए थे। राज कपूर के जीवन में सबसे बड़ी प्रेरणा उनके पिता थे। और विराट सफलता अर्जित करने के बाद भी उन्हें कभी नहीं लगा कि पिता से अधिक कर पाए हैं। पुरस्कार समारोह में राष्ट्रपति ने उन्हें श्वास के लिए संघर्ष करते देखा, तो स्वयं मंच से उतरकर उनके पास गए और फिल्म मुहावरे मंे ंयह जोकर के ईसा मसीह को हंसाने की तरह है।

ज्ञातव्य है कि बचपन में स्कूल के एक नाटक में अपनी साइज से बड़ा गाउन पहने राज कपूर मंच पर गिरे, तो क्राइस्ट बना लड़का हंस दिया था। राष्ट्रपति से पुरस्कार लेने के क्षण तक उन्हें होश था और अगले ही क्षण वे कोमा में चले गए।

अस्पताल में तीस दिन तक उन्हें मशीनों के सहारे तकनीकी तौर पर जीवित माना गया, परंतु चेतना का एक क्षण वही था। उस एक क्षण में मस्तिष्क में क्या कौंधा होगा? माता, पिता, पत्नी, प्रेयसी या कैमरामैन राधू से कहना कि टॉप शॉट लेना है और गीत- ‘कल खेल में हम हों न हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम भूलेंगे वो, पर तुम्हारे रहेंगे सदा!’ - प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक और आलोचक

Saturday, 28 May 2011

इन पांच रचनाओं ने हर दौर को अपना कायल बना लिया



साहित्य और सिनेमा के बारे में अक्सर ये बात कही जाती है कि हम जिस लायक होते हैं हमें उसी स्तर का साहित्य और सिनेमा देखने को मिलता है। आज भारतीय सिनेमा दुनिया की सबसे बड़ी फिल्म इंडस्ट्री है जहां हर साल औसतन एक हजार फिल्में बनती हैं।





इस श्रृंखला में हम आपको भारतीय सिने जगत की ऐसी दस फिल्मों से रूबरू कराने जा रहे हैं जिन्होने न सिर्फ उस दौर को आइना दिखाने का क ाम किया है बल्कि, भारतीय सिनेमा को वह बुलंदी दी जिसने आने वाले दौर के फिल्म निर्माताओं के सामने आदर्श का काम किया। पेश है ऐसी ही पांच फिल्मों की झलकियां.....
प्यासा (1957) : यह फिल्म 19 फरवरी 1957 को रिलीज हुई। गुरू दत्त, वहिदा रहमान, माला सिन्हा और जॉनी वॉकर अभिनीत इस फिल्म के निर्माता और निर्देशक खुद गुरू दत्त ही थे। यह फिल्म एक असफल और मजबूर लेखक की कहानी को बयां करती है।
मदर इंडिया (१९५७) : साहूकार के चंगुल में फंसे एक परिवार की दिल छू लेने वाली इस कहानी को फिल्म के निर्माता-निर्देशक महबूब खान ने खुद ही लिखा था। नरगिस, सुनील दत्त, राजेंद्र कुमार और राज कु मार अभिनीत यह फिल्म 25 अक्टूबर 1957 को रिलीज की गई।
जागते रहो (१९५६) : गांव से काम की तलाश में गांव से शहर आए एक किसान की मजबूरी और शहर के तथाकथित बड़े लोगों के जीवन के छुपे हुए पहलुओं को उजागर करने वाली इस फिल्म में राज कपूर ने मुख्य भूमिका अदा की थी।

दो बीघा जमीन (१९५३) : एक किसान की दो बीघा जमीन पर साहूकार की बुरी नजर और उसे बचाने के लिए एक गरीब किसान के संघर्ष को बयां करने वाली इस फिल्म की कहानी सलिल चौधरी ने लिखी थी। फिल्म के निर्माता-निर्देशन बिमल रॉय थे जबकि इस फिल्म में बलराजी साहनी, निरूपा राव, जगदीप, मीना कुमारी और रतन कुमार ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थीं।
नया दौर (१९५७) : आजादी के बाद आए औद्योगीकरण और उससे गरीब खासतौर तांगेवालों के जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को दिखाने वाली इस फिल्म में दिलीप कुमार, वैजयंतीमाला और जीवन ने मुख्य भूमिकाएं निभाई थी। फिल्म का निर्माण और निर्देशन बी आर चोपड़ा ने किया था।

थेअरी

थेअरी म्हणजे थेअरी असते
कधी खोटी कधी खरी असते
तिला शेंडा आणि बूड असते
पण तरीही ते कधीच उमजत नसते
सारे जग हिच्या मागे फसते
कधी हि कोणाला दिसते
आणि कधी हि कोणाला बघून लपते
हि सारखी माझ्या डोळ्यात खुपते
हि थेअरी कशी असते
पण ती कोणालाच समाजात नाही
तिला बघून घाम शिवाय शरीरा मध्ये कोणीच बोलत नाही
तिला स्वतःवर खूप गर्व असते
म्हणून थेअरी म्हणजे थेअरी असते
कधी खोटी कधी खरी असते

इन्हीं लोगों ने ले लीना दुपट्टा मेरा


भारत में छद्म बुद्धिजीवियों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसके कुछ नुमाइंदे पत्रकारिता में भी हैं और जो प्राय: आम आदमियों में लोकप्रिय चीजों को हिकारत की निगाह से देखता है। उनकी हिकारत के दायरे में साहित्य, सिनेमा और राजनीति भी शामिल है। ममता बनर्जी तथाकथित भद्रलोक से नहीं हैं, अत: उनकी जबरदस्त चुनावी जीत को भी इत्तफाक ही माना जा रहा है।

पश्चिम बंगाल का शासन ‘राइटर्स बिल्डिंग’ से चलाया जाता है और इसके नाम में भी भद्रलोक ध्वनित होता है। कुछ पाठकों ने यह जानने का आग्रह किया है कि लोकप्रिय फिल्मों की श्रेणी में ‘दबंग’ को शिखर पुरस्कार देने पर क्या प्रतिक्रिया हुई है।

सलमान खान पुरस्कारों के तमाशे में कोई खास रुचि नहीं लेते, अत: वे न अति उत्साहित लगे और न ही खिन्न लगे। उनका कहना है कि देश के दर्शकों ने फिल्म को वर्ष की सबसे सफल फिल्म बनाया और राष्ट्रीय पुरस्कार समिति ने उसी पर अपनी मोहर लगाई है। वह हमेशा आम दर्शकों के पसंदीदा नायक रहे हैं और पूरे वर्ष उनके मकान के बाहर काफी संख्या में प्रशंसक जमा रहते हैं। सलमान की सोच में कोई छद्म बौद्धिक दंभ नहीं है और कभी कोई पूर्वनिर्धारित योजना के तहत वह काम भी नहीं करते। उनका प्रेम निश्छल है और हिकारत में भी कोई मिलावट नहीं है।

बहरहाल ‘दबंग’ मसाला फिल्म है। इसमें कर्णप्रिय संगीत है और ‘मुन्नी बदनाम’ की लोकप्रियता के कारण साजिद-वाजिद के बाकी सारे गानों के माधुर्य को यथोचित सराहना नहीं मिली। इस एक्शन फिल्म की प्रेम-कथा लोगों को बहुत पसंद आई है और सोनाक्षी की ताजगी भी सराही गई है। कथा में सौतेले भाइयों के रिश्ते के साथ पारिवारिकता के तत्वों का समावेश भी है।

ज्ञातव्य है कि ‘नाम’ में सगे भाइयों की जगह सलीम साहब ने सौतेलों के बीच गहरा प्रेम दिखाकर फिल्म को धार प्रदान की थी। यह हिंदुस्तानी सिनेमा के निजी आजमाए हुए फॉमरूले की फिल्म थी जो विगत कुछ वर्षो में ‘डॉलर सिनेमा’ के नीचे दबा दिए गए थे।

इसकी विशुद्ध भारतीयता इसकी ताकत थी, जिस कारण मल्टीप्लैक्स के साथ एकल सिनेमाघरों में भी अभूतपूर्व भीड़ जुटी। कुछ लोगों को भ्रष्ट पुलिस वाले की रॉबिन हुड नुमा छवि पर एतराज है, जबकि रॉबिन हुड का चरित्र हमेशा अवाम को पसंद रहा है। कुछ एतराज संवादों पर है।

कस्बों में इसी तरह की बातें की जाती हैं। ‘मुन्नी’ पर एतराज करने वाले लोग लोकगीतों के खुलेपन को नजरअंदाज कर रहे हैं और दशकों पूर्व ट्विन संगीत कंपनी द्वारा पेश सिपहिया गीतों की उन्हें जानकारी नहीं है। दरअसल सारे एतराज श्रेष्ठिवर्ग और भद्रलोक विचार-शैली से संबंध रखते हैं और इसी वर्ग ने ‘सिलसिला’ के लोकगीत ‘रंग बरसे भीगे..’ का खूब मजा लिया था क्योंकि वह श्रेष्ठिवर्ग की बनाई फिल्म थी और लोग ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..’ को भी भूल गए। दरअसल सदियों से इसी जमात ने तो ‘ले लीना दुपट्टा मेरा।’ ये लोग तो कोठों पर भी मुखौटा लगाकर गए हैं।

आम आदमी जीवन के असमान युद्ध में निहत्था ही लड़ता आया है। अन्याय आधारित समाज में उस गरीब के मनोरंजन पर एतराज है और विषम जीवन परिस्थितियों में उसके जरा-सा खुश हो जाने पर कुछ लोगों की भौहों में बल पड़ जाता है। अपने संगमरमरी बुर्जे पर बैठे लोग हैरान हैं कि यह कम्बख्त आम आदमी साला ठहाके कैसे लगा रहा है!

अनाज और सुविधाओं पर कंट्रोल लगा दिया है, इसकी खुशी पर ‘सस्ता’ और अश्लीलता का आरोप जड़ दो, इसके पुरस्कारों को कलंकित कर दो। यह हिकमत अनेक साहित्यकारों के खिलाफ कारगर सिद्ध हुई। चाहे मुनरो हों या मंटो, इस्मत चुगताई हों या डीएच लॉरेंस, राजा रवि वर्मा हों या एमएफ हुसैन।

राष्ट्रीय पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष जेपी दत्ता ने अधिकारिक घोषणा के समय लोकप्रिय फिल्म श्रेणी की बात के पहले अपना चश्मा उतारा और चेहरे पर भाव परिवर्तन कुछ ऐसा आभास दे रहा था मानो वे कुछ मजबूर होकर ‘दबंग’ की घोषणा कर रहे हैं। यह भी संभव है कि वे स्वाभाविक सहज थे और उनकी अदा का यह अर्थ ही गलत लगाया जा रहा है, परंतु मुमकिन है कि उनके अवचेतन में उनके बुद्धिजीवी प्रशंसक मौजूद हों और यह उन्हें क्षमायाचना सहित निवेदन हो, परंतु अगले दिन अपने बयान में उन्होंने ‘दबंग’ की प्रशंसा ही की।

छोटा-सा प्रभावशाली दल बड़ी झिझक से मन मसोसकर इस बात पर विद्रूप से मुस्कराता है कि उसके मतानुसार किसी ‘बाजारू’ चीज को पुरस्कार भी मिले, क्योंकि सारे राष्ट्रीय पुरस्कार उन फिल्मों के लिए आरक्षित रखे हैं, जिन्हें कम लोगों ने देखा और कमतर ने समझा हो।

Thursday, 26 May 2011

मुझको यारो माफ करना मैं नशे में हूं


मुंबई में यह खबर बहुत चटखारे लेकर सुनी-सुनाई और फैलाई जा रही है कि तमाम सुपर सितारों और सफल फिल्मकारों की पत्नियां अलग-अलग दलों में विभाजित हैं और हर दल में अपने मित्रों और निकट के लोगों के साथ नशीली दवाओं का सीमित मात्रा में उपयोग करती हैं। इसके साथ ही अत्यंत कम प्रचलित तथ्य यह भी है कि सितारा खिलाड़ियों और अत्यंत समृद्ध औद्योगिक घरानों की महिलाएं भी सीमित मात्रा में ड्रग्स का उपयोग करती हैं।

कुछ वर्ष पूर्व एक आकलन यह भी प्रकाशित हुआ था कि विगत दो दशकों में भारतीय समाज में शराब पीने वाली महिलाओं का प्रतिशत काफी हद तक बढ़ा है। पहले केवल जनजातियों की महिलाएं ठर्रा पीती थीं और अब तो निहायत ही निम्न आय वर्ग की महिलाएं भी पीती हैं।

गौरतलब यह है कि मध्यम शिक्षित वर्ग की घरलू कार्य में व्यस्त महिलाएं एवं दफ्तरों में नौकरी करने वाली महिलाएं भी शराब का सेवन करने लगी हैं। इसके साथ ही छोटे शहरों और कस्बों से नजदीक के बड़े शहर में उच्च शिक्षा पाने या नौकरी करने वाली युवा लड़कियां कुकुरमुत्ते की तरह उभर आए प्राइवेट महिला छात्रावासों में भी शराब का सेवन करने लगी हैं।

दरअसल समाज में खुलेपन की लहर 1969-70 से ही प्रारंभ हो चुकी थी, जिस वर्ष यह बात सामने आई कि देश में काला धन जायज धन के लगभग बराबर हो चुका है। उसी दौर में कुछ बोल्ड किस्म की पत्रिकाओं के प्रकाशन के साथ ही प्रतिष्ठित प्रकाशनों में भी किसी न किसी बहाने नारी शरीर प्रदर्शन की तस्वीरें प्रकाशित होने लगी थीं। क्या समाज में पनपे काले धन का सामाजिक जीवन में खुलेपन की लहर से सीधा संबंध है? यह सही नहीं हो सकता क्योंकि जिन देशों में भ्रष्टाचार और उससे जन्मा काला धन अत्यंत कम है, वहां भी जीवन में खुलापन रहा है।

विक्टोरियन मूल्यों का चश्मा कब का तड़क चुका है और पश्चिम में इसको अभिव्यक्ति और जीवन की स्वतंत्रता के साथ जोड़ा गया है। हमारे यहां स्वतंत्रता सीमित और चुनिंदा लोगों को ही उपलब्ध रही है। दरअसल उन्मुक्त जीवन की चाह स्वाभाविक और सार्वभौमिक है।

सारे सामाजिक नियम, पूर्वग्रह, कुंठाएं एवं वर्जनाओं का निर्धारण मनुष्य की आर्थिक स्थिति ही करती रही है। राजिंदर सिंह बेदी का महान उपन्यास ‘एक चादर मैली सी’ जीवनयापन के कारण एक मानवीय रिश्ते में परिवर्तन की कहानी है कि किस तरह एक विधवा को अपने बच्चे समान देवर से विवाह करना पड़ता है क्योंकि सीमित आय में दो परिवारों का गुजारा संभव नहीं है। नैतिकता या उसके नाम पर रची छद्म नैतिकता आर्थिक जरूरतों के सामने अत्यंत लचीली और परिवर्तनशील हो जाती है। नैतिकता का स्थान केवल गरीब आदमी के लिए है और समर्थ के सामने यह मोम हो जाती है।

बहरहाल सितारों की पत्नियों का जीवन सचमुच कष्टप्रद है, क्योंकि पति न केवल व्यस्त है वरन फुर्सत के क्षणों में भी वह चमचों से घिरा रहता है और उसे अपनी प्रशंसा के समूह गीत ही पसंद हैं। वह सत्य का एक सुर भी सहन नहीं कर सकता। अपने जीवन की ऊब को कम करने के लिए नशीले पदार्थ का सेवन शायद किया जाता है और जीवन के यथार्थ से पलायन की इच्छा अनेक लोगों को होती है। ड्रग्स के सेवन से कुछ समय तक व्यक्ति स्वयं ही सुपर सितारा हो जाता है।

Wednesday, 25 May 2011

सेलिब्रिटी फंडा: न्यूड हो जाओ, नाम कमाओ, काम पाओ

बॉलीवुड सेलीब्रिटी लोगों को अपनी और खींचने का एक भी मौका छोड़ना नहीं चाहते। ऐसे में सोशल नेटवर्किग साइट उनके लिए सुर्खियां बटारने का सबसे अच्छा माध्यम बन गई हैं। वे अपने जीवन से जुड़ी हर छोटी से छोटी घटना का उल्लेख साइट पर करते रहते हैं।


हालांकि बालीवुड के शहंशाह अमिताभ बच्चन रेगुलर ट्विटर पर पोस्ट करते है, जो बहुत सामान्य बातें होती हैं। लेकिन वहीं कुछ हस्तियां अपने प्रशंसकों की लिस्ट लंबी करने के चक्कर में कई बार न्यूड फोटो लोड कर देते हैं या फिर कुछ ऐसा कर जाते है जो बहुत चौंकाने वाला होता है।

हाल ही में फिल्म प्रिंस में विवके ओबेरॉय के साथ नजर आ चुकी अभिनेत्री अरुणा शील्ड्स ने अपनी चौंकाने वाली तस्वीर फेसबुक पर डाली थी। जिसमें अरुणा चेचक से पीड़ित दिखाई पड़ रही है। इस तस्वीर को अरुणा ने ऐसे ही पोस्ट कर दिया है। जिसमें वह न्यूड दिख रही है। “The sick n spotty prize goes to Miss Measles. . हम अरुणा के जल्द ठीक होने की कामना करते है, लेकिन उनकी इस हरकत ने सब को चौंका दिया है।

ऐसे ही शर्लिन चोपड़ा ने अपनी न्यूड फोटो साइट पर डाली थी। जिसके बाद काफी हंगामा मचा था और इसके बाद ट्विटर ने इस पर प्रतिबंध लगा दिया था। हालांकि तब तक शर्लिन बहुत सुर्खियां बटोर चुकी थी।

मनीषा कोईराला ने भी अपने पति सम्राट से अलग होने की खबर ट्विटर पर ही पोस्ट की थी। मनीषा ने ऐसे करके सबकों चौंका तो दिया, लेकिन जैसे ही उन्हें अपनी गलती का एहसास हुआ। उन्होंने उसे साइट से हटा दिया।

दक्षिण के सुपरस्टार कमल हासन ने भी ट्विटर पर लिखा था कि शाहरुख से ज्यादा प्रशंसक तो मेरे है। यह उनका पहला ट्विटर कमेंट था जिसमें उन्होंने लिखा था कि “the real KRK is here’.

इस तरह के उदाहरण और भी है। जो आगे भी शायद जारी रहेंगे।

आपकी राय: आपकों क्या लगता है कि सिर्फ सुर्खियां बटोरने के लिए सितारे ऐसा करता है या फिर इसमें कुछ सच्चाई भी होती है? आपकी राय हमें मर्यादित भाषा में कमेंट बॉक्स में जाकर दे सकते हैं।
http://bollywood.bhaskar.com/article/ENT-BOL-bollywood-social-networking-updates-create-shocking-waves-2131030.html

Tuesday, 24 May 2011

गाय कन्याएं और भारतीय लोग


आमिर खान की इमरान खान अभिनीत फिल्म ‘देल्ही बैली’ में पूर्णा जगन्नाथन नामक भारतीय मूल की अमेरिकी टेलीविजन अभिनेत्री ने नायिका की भूमिका निभाई है। पूर्णा के पिता भारतीय विदेश सेवा में कार्यरत रहे, अत: उन्हें ब्राजील, आयरलैंड, अर्ज्ेटीना, पाकिस्तान इत्यादि देशों में रहने का अनुभव है और अभिनय के साथ ही वह अपनी सलाहकार कंपनी ‘काऊगल्र्स एंड इंडियंस’ भी चलाती हैं।

यह संभव है कि पूर्णा भारत से अधिक समय विदेशों में रही हों, जिसका प्रभाव उनके व्यक्तित्व पर भी अवश्य पड़ा होगा। उनके द्वारा अपनी कंपनी के नाम चयन से कुछ अनुमान लगाया जा सकता है, जिसका अनुवाद होगा- ‘गाय कन्याएं और भारतीय’।

महानगरों के वाचाल लोग बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और मध्य प्रदेश के इलाके को हिकारत से काऊ बेल्ट अर्थात गैया क्षेत्र कहते हैं और डॉलर सिनेमा के छोटे से प्रभाव काल में दंभी फिल्मकार भी गाय क्षेत्र के दर्शकों को हिकारत से ही देखते थे, परंतु ‘गजनी’, ‘वांटेड’ और ‘दबंग’ की विराट व्यावसायिक सफलता और उसमें एकल सिनेमाघरों के योगदान से वे चकित और शर्मसार हैं।

दरअसल यह दृष्टिकोण अपनी छद्म आधुनिकता का दंभ है और संघर्षरत उभरते लोगों का अपमान भी है। उन्हें जिस महानगरीय प्रगति का दंभ है, वह कितनी खोखली है, यह जानने के लिए उन्हें चीन के संपूर्णत: विकसित बीजिंग से दूरदराज बसे क्षेत्रों को देखना चाहिए या उसकी जानकारी हासिल करनी चाहिए।

बहरहाल, पूर्णा मुंबइया फिल्म उद्योग की पारंपरिक सितारा नायिकाओं की तरह नहीं हैं। इस उद्योग में कमसिन उम्र की लड़कियां प्रवेश करती हैं, परंतु पूर्णा पूर्णत: वयस्क हैं और वयस्क फिल्म से ही प्रारंभ कर रही हैं। इस क्षेत्र में कम उम्र अधिक पूंजी मानी जाती है, परंतु पूर्णा संभवत: प्रतिभा की पूंजी पर निवेश या कहें कि प्रवेश कर रही हैं।

आमिर खान ने सेंसर बोर्ड के समक्ष वयस्क फिल्म के प्रमाण पत्र के लिए आवेदन किया, जबकि अमूमन फिल्म निर्माता आपत्तियां उठने पर इस तरह का प्रमाण पत्र मजबूरी में स्वीकार करते हैं क्योंकि इनका सैटेलाइट प्रदर्शन देर रात होने के कारण कम धन प्राप्त होता है।

आमिर की फिल्म में सेक्स इत्यादि के दृश्य नहीं हैं, परंतु वयस्क प्रमाण पत्र उन्होंने संवादों में अपशब्दों के इस्तेमाल के कारण मांगा है। आजकल रोजमर्रा के जीवन में अपशब्दों का इस्तेमाल बहुत होता है और गौरतलब यह है कि अंग्रेजी में बोले अपशब्दों पर उतनी आपत्ति नहीं ली जाती, जितनी हिंदुस्तानी भाषा में दी गई गालियों पर ली जाती है।

आजकल भद्रलोक की प्रकाशन संस्थाओं द्वारा प्रकाशित अंग्रेजी भाषा की किताबों में पात्र प्राय: अपशब्द जड़ित भाषा में बात करते हैं। कुछ अंग्रेजी भाषा में लिखी किताबों में प्रचुर मात्रा में हिंदी शब्दों का इस्तेमाल हो रहा है। उसी तरह हिंदी भाषा के अखबारों में न केवल अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल होता है, वरन एक या दो पृष्ठ भी अंग्रेजी में होते हैं।

गोयाकि इस अभिव्यक्ति के अधिकतम दौर में भाषाएं गलबहियां करती नजर आ रही हैं और उन्होंने छद्म शास्त्रीयता के कौमार्य को तिलांजलि दे दी है। गौरतलब यह है कि इस कालखंड में अनेक क्षेत्रों में लोग पूर्वनिर्धारित परिभाषाओं से परे जा रहे हैं और कुछ धारणाओं के टांके उधड़ गए हैं, सिलाई की जगह ही नष्ट हो रही है।

यह शरारत और गुदगुदी का दौर है। बहरहाल, ‘देल्ही बैली’ की कथा की जानकारी नहीं है, परंतु फिल्म के नाम के चयन में शायद अनचाहे ही एक व्यंग्य आ गया है। देश की राजधानी का पेट विराट है, दिल और दिमाग से ज्यादा खाने पर जोर है। राष्ट्रीय अपच का द्योतक हो गया है यह टाइटिल।

DRAG ME TO HELL (2009) MOVIE REVIEW

Storyline

Christine Brown is a loans officer at a bank but is worried about her lot in life. She's in competition with a competent colleague for an assistant manager position and isn't too sure about her status with a boyfriend. Worried that her boss will think less of her if she shows weakness, she refuses a time extension on a loan to an old woman, Mrs. Ganush, who now faces foreclosure and the loss of her house. In retaliation, the old woman place a curse on her which, she subsequently learns, will result in her being taken to hell in a few days time. With the help of a psychic, she tries to rid herself of the demon, but faces several hurdles in the attempt.

Review

This is how a Horror Movie should be..Completely Satisfactory

After reading lots of bad reviews in here I went and saw the movie last night.. all that I can say is WOW! Raimi is back..to Horror .. Cant wait for Evil Dead 4... To all the pathetic people that wrote bad reviews .. get a life, Obviously none of them have seen evil dead trilogy or appreciate Sam Raimi's work, this movie had it all. all you haters go watch your favorite SAW movie and be gone! Great sound, Great fx and wow PG13 lol. But Ill tell you this, If your wanting to go see the best horror movie made in years this is the one. But if your expecting Saw like gore. This is not your movie. Raimi doesn't need blood splatter in this one to shock. 

Directed by
Sam Raimi 
 
Writing credits
(WGA)
Sam Raimi (written by) &
Ivan Raimi (written by)

Cast

Alison Lohman Alison Lohman ...
Justin Long Justin Long ...
Lorna Raver Lorna Raver ...
Dileep Rao Dileep Rao ...
David Paymer David Paymer ...
Adriana Barraza Adriana Barraza ...
Chelcie Ross Chelcie Ross ...
Reggie Lee Reggie Lee ...
Molly Cheek Molly Cheek ...
Bojana Novakovic Bojana Novakovic ...
Kevin Foster Kevin Foster ...
Alexis Cruz Alexis Cruz ...
Ruth Livier Ruth Livier ...
Shiloh Selassie Shiloh Selassie ...
Flor de Maria Chahua Flor de Maria Chahua ...