Thursday, 19 May 2011

महिला राज में महिलाओं की दारुण दशा


सिंहासन पर नहीं बैठते हुए भी सोनिया गांधी केंद्रीय शक्ति हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती शासन कर रही हैं और ममता तथा जयललिता भी अपने-अपने राज्यों में विराजमान हैं, गोयाकि महिलाएं निर्णायक हैं, परंतु इसका यह अर्थ नहीं है कि पूरे भारत में औरतों को समान अधिकार और स्वतंत्रता प्राप्त है। शास्त्रों से संविधान तक में पूजनीय स्थान दिए जाने के बावजूद महिलाएं दोयम दर्जे की नागरिक हैं। फिल्म उद्योग में भी किरण राव खान और गौरी खान बहुत प्रभावी हैं।

फरहा खान भी महत्वपूर्ण निर्देशिका मानी जाती हैं। मंत्रियों और अफसरों की पत्नियों को भी परदे के पीछे रहकर आज्ञा जारी करने की इजाजत है। कुछ औद्योगिक घरानों में भी महिलाएं सक्रिय हैं और अनेक लोगों के जीवन में परिवर्तन ला सकती हैं। करीना, कैटरीना और प्रियंका भी एकल व्यक्ति उद्योग का दर्जा पा चुकी हैं।

जब महिलाएं किसी भी क्षेत्र में सत्तासीन होती हैं, तब वे शायद पुरुषों की तरह सोचने लगती हैं। आम महिला का विकास उनका मुद्दा ही नहीं रहता। भारतीय समाज में अल्पसंख्यक लोगों में सफल और संपन्न लोग भी अपने समाज से दूर चले जाते हैं और उनके नुमाइंदे बनकर भी उनके रहनुमा नहीं रह जाते। इसी तरह दलित वर्ग या जनजाति का व्यक्ति भी सफल होकर अपने वर्ग से विमुख हो जाता है।

संरचना कुछ ऐसी है कि अंततोगत्वा दो ही वर्ग रह जाते हैं - सफल, संपन्न लोगों का वर्ग और सुविधाहीन लोगों का विशाल समुदाय। फिल्म उद्योग में भी प्रतिभाशाली लोग कम बजट की सार्थक फिल्म गढ़ते समय समर्थ कलाकारों से अच्छे उद्देश्य के लिए सहयोग लेकर फिल्म बनाते हैं और ब्रांड बनते ही बड़े बजट की सिताराजड़ित मसाला फिल्में गढ़ने लगते हैं।

नसीरुद्दीन शाह और ओमपुरी ने इस तरह की बहुत फिल्मों में कौड़ियों के दाम लेकर अभिनय किया और फिर उन फिल्मकारों ने अपनी बड़े बजट की फिल्मों में उन्हें काम ही नहीं दिया। मधुर भंडारकर, अजीज मिर्जा, प्रकाश झा, विधु विनोद चोपड़ा जैसे फिल्मकारों ने अपना कॅरियर इसी तरह शुरू किया था।

साहित्य के क्षेत्र में ब्रांड होते ही आदमी ‘भोगे हुए यथार्थ’ की बात भूल जाता है और नई प्रतिभा को प्रेरित करने का काम छोड़ देता है। उसके विरोध के स्वर भी धीमे पड़ जाते हैं। सफल होते ही लेखक दावतों और सम्मान समारोहों में डूब जाता है। सेलिब्रिटी सर्कस में सारा जुनून स्वाहा हो जाता है।

निम्न आर्थिक वर्ग में भी इसी तरह का भेद देखा जाता है कि जरा-सा सीनियर चपरासी नए रंगरूट पर रुतबा झाड़ने लगता है। इसी भारतीय स्वभाव के कारण हमारे यहां सत्ता का चरित्र बना है और तमाम राजनीतिक आदर्शो को सत्तासीन होते ही भुला दिया जाता है। यहां कुर्सी एक रंगरेज है, जो सबको एक ही रंग में रंग देती है - सफल कम्युनिस्ट, सफल भाजपा और सफल कांग्रेस नेता में फर्क ही नहीं किया जा सकता है।

इस महान ऊर्जावान देश में वर्ग-भेद की जड़ें बहुत गहरी हैं और इनकी जांच-पड़ताल आपको पुरातन ग्रंथों और शास्त्रों तक ले जाती है। हमारी स्वर्ग और नकर् की परिकल्पना में भी अनेक सतहें और वर्ग हैं। गंधर्व देवता नहीं होते। यह भी विचारणीय है कि धर्म के साथ प्राय: दान शब्द जोड़ा जाता है। दानकर्ता के मन में अहंकार होता है और किसी को आपकी जरूरत है, यह बात भी अहं को तुष्ट करती है।

समाज में समान अवसर से अधिक महत्व दान को दिया गया है। यूं तो राज कपूर की ‘संगम’ व्यावसायिक प्रेम-त्रिकोण थी, परंतु क्लाइमैक्स में राज कपूर को ज्ञात होता है कि उनके अमीर दोस्त राजेंद्र कुमार के त्याग और दान से उन्हें प्रेम प्राप्त हुआ है तो वह तिलमिलाकर कहते हैं, ‘फिर वही ऊंचे बुर्ज पर खड़े रहकर दान देने की अदा।’ कई बार आश्चर्य होता है कि कृष्ण-सुदामा को कुरुक्षेत्र में शस्त्र लिए खड़ा देखते तो उनकी क्या प्रतिक्रिया होती?

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