Friday 13 May 2011

काश! नेक इरादों से कुछ हो पाता


फिल्म ‘स्टेनली का डब्बा’ देखने के बाद महसूस हुआ कि प्रतिभाशाली और नेक इरादों वाले अमोल गुप्ते ने केवल उसी सत्य पर मोहर लगाई है, जो उनके पहले ‘राजा हिंदुस्तानी’ के निर्देशक धर्मेश दर्शन, ‘गुलाम’ के निर्देशक विक्रम भट्ट और कुछ हद तक ‘लगान’ के सृजनकर्ता आशुतोष गोवारीकर सिद्ध कर चुके थे कि आमिर खान अभिनीत फिल्मों में उनका सृजन सहयोग कितना अधिक होता है और इस ‘आमिर स्पर्श’ के बिना फिल्में गहरा प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। ‘तारे जमीं पर’ की कुछ रीलें बनने के बाद आमिर खान ने अमोल गुप्ते को हटाकर निर्देशन का दायित्व स्वयं संभाला था, जिस पर गुप्ते ने मीडिया में शोर मचा दिया था और कुछ मात्र सनसनी पैदा करने में माहिर लोगों ने आमिर खान को श्रेय लूटने वाला तक कह दिया था।

बहरहाल अमोल गुप्ते के इरादे नेक थे, परंतु केवल नेक इरादों से प्रभावोत्पादक फिल्म नहीं बनती। इस फिल्म में छोटे बच्चों से जानलेवा मेहनत कराने वालों के खिलाफ बात कही गई है। चाइल्ड लेबर के खिलाफ कानून बनाने के बाद भी भारत में लाखों मजबूर बच्चों से मजदूरी कराई जाती है, क्योंकि भारत महान में कोई भी सामाजिक परिवर्तन या न्याय कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता। यही बात अन्ना हजारे महसूस नहीं कर रहे हैं कि सड़ांध भरी व्यवस्था में कानून के एक चाकू से बीमारी दूर नहीं होगी और नैतिक मूल्यों की स्थापना के बिना सारे कानून महज कागजी कसरत सिद्ध होते हैं।

फिल्म की कथा का सूत्र इतना महीन है कि उस पर वृत्तचित्र ही बन सकता है। फिल्म में एक स्कूल शिक्षक अपने सहयोगियों के डिब्बे से खाना चुराता है। छात्रों के भोजन के डिब्बों पर उसकी निगाह रहती है और वही डिब्बा न ला पाने वाले गरीब छात्र को स्कूल आने से रोकता है। यह पात्र इतना अवास्तविक और अविश्वसनीय है कि पूरी फिल्म को ही ले डूबता है। अगर इसी पात्र की अनंत भूख को उसके अभाव से भरे बचपन के साथ जोड़ा जा सकता तो संभवत: कहानी बन जाती।

अफसोस की बात है कि गुप्ते जैसा कुशल अभिनेता भी इस प्राणहीन पात्र में जीवन का स्पंदन नहीं पैदा कर पाया। अब आप मोर्ग (मुर्दाघर) से कोई लाश ले आएं तो धन्वंतरि भी उसमें हल्की सी हरकत नहीं पैदा कर पाते और यह पात्र तो इतना उबाऊ और दोहराव वाला है कि मेडिकल कॉलेज में एनाटॉमी के छात्र भी इसे चीरकर कुछ प्राप्त नहीं कर पाएंगे। कुछ माह पूर्व प्रदर्शित ‘फंस गए रे ओबामा’ में अमोल गुप्ते ने भ्रष्ट मंत्री का पात्र क्या खूब निभाया था।

बवासीर से पीडि़त जाहिल मंत्री शौचालय में मंत्र पढ़कर फारिग होना चाहता है। यह एक कमाल का कैमियो था। वही अमोल इस कमजोर निष्प्राण चरित्र में कोई हरकत ही पैदा नहीं कर पाए। इसी फिल्म के बारे में विशाल भारद्वाज कहते हैं कि इस बार गुप्ते तारे नहीं, चांद ही जमीन पर ले आए हैं। यह अमोल की प्रशंसा थी, जिसमें आमिर खान के प्रति उनकी डाह भी छुपी है।

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