Monday, 9 May 2011

जीवन के बर्तन में भोगे यथार्थ की तलछट

संजय लीला भंसाली का कहना है कि वे मुंबई के निम्न-मध्यम वर्ग के पायोधोनी, भिंडी बाजार में पले हैं और उन्होंने गरीबी, गंदगी और भीड़ देखी है। वे कटु अनुभव आज भी उन्हें त्रास देते हैं और उस यथार्थ से दूर वे अपनी फिल्मों में एक काल्पनिक और भव्य संसार रचते हैं। यथार्थ के पात्रों को उन्होंने ‘सांवरिया’ में एक कल्पना संसार में प्रस्तुत किया। ‘गुजारिश’ के पात्र एक पुरानी टूटी हवेली में रहते हैं और इसके बावजूद भव्यता का एहसास होता है। हर व्यक्ति यथार्थ से घबराकर कुछ क्षणों के लिए अपने निजी कल्पना संसार में सुस्ताता है, परंतु फिल्मकार को अपना कल्पना संसार इस तरह रचना होता है कि दर्शक उससे तादात्म्य स्थापित कर सकें।



आजकल ‘वांटेड’ के लिए प्रसिद्ध प्रभुदेवा के निर्देशन में संजय लीला भंसाली ‘राउडी राठौर’ नामक फिल्म का निर्माण कर रहे हैं। ‘खामोशी’ से ‘गुजारिश’ तक के सफर में भंसाली ने एक्शन फिल्म नहीं बनाई थी, परंतु शायद कभी उनके प्रिय नायक रहे सलमान खान की एक्शन फिल्मों की विराट सफलता ने उन्हें प्रेरित किया है। ‘सांवरिया’ और ‘गुजारिश’ के बाद उनकी निर्माण संस्था को भी एक सफलता की आवश्यकता है। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि शाहरुख खान ने एक बार भंसाली से कहा था कि हिंसा का एक रेशा उनके व्यक्तित्व में है और उन्हें एक्शन फिल्म बनानी चाहिए। प्रेम कहानी बनाते समय भी भावना की तीव्रता में एक किस्म की हिंसा या कहें आक्रामकता निहित रहती है। भंसाली की यह प्रवृत्ति ‘हम दिल दे चुके सनम’ में भी नजर आती है और ‘ब्लैक’ में भी। हिंसा या आक्रामकता का अर्थ महज खून बहाना नहीं होता, आत्मा को आहत करना भी होता है। इस मामले में कड़वे शब्दों की मारकता को किसी तलवार के वार से कम नहीं आंक सकते। कुछ व्यक्तित्व इतने तल्ख होते हैं कि जहां से गुजरें, वहां लोग भीतर से लहूलुहान हो जाते हैं।



संजय लीला भंसाली के पिता भी इसी उद्योग में थे, परंतु घाटे के कारण परिवार को कष्टï झेलने पड़े। उस समय संजय छोटे थे और उनकी मां ने अकेले ही लड़ाई लड़ी। गौरतलब यह है कि श्रीमती लीला भंसाली ने कोई कड़वाहट नहीं पाली, परंतु पुत्र ने उस दौर को सीने में संजोए रखा है। दुख-सुख में हर व्यक्ति अपने ढंग से प्रभाव ग्रहण करता है।



यह संभव है कि संजय भंसाली ने उस कड़वाहट की हवा से अपने सृजन की आग बढ़ाई हो। उन्हें कुछ साबित करना था। अपने भोगे हुए सच से बचने के लिए उन्होंने फंतासी रची और अपनी सृजन प्रक्रिया का विकास किया। ब्रांड बन जाने के कारण उनके निजी सिनेमाई सनकीपन पर सार्वजनिक पैसा लगा और उन्हें तो करोड़ों का मुनाफा ही हुआ है। सिनेमा उद्योग की मौजूदा आर्थिक व्यवस्था कुछ ऐसी ही है। इस समय वह बतौर निर्माता बहुत व्यस्त हैं और विगत पांच-सात वर्षों से अपनी संपादक बहन बेला भंसाली की निर्देशकीय पहल की बात करते रहे हैं। अब फिल्मकार फरहा खान को नायिका लेकर बेला की फिल्म ‘शीरीं फरहाद’ शुरू हो रही है।



यह शीरीं फरहाद की पुरानी प्रेमकथा नहीं होकर चालीस वर्षीय पारसी स्त्री-पुरुष की प्रेम कथा है। ज्ञातव्य है कि संजय की ‘सांवरिया’ और फरहा की ‘ओम शंाति ओम’ एक साथ प्रदर्शित हुई थीं और उस वक्त दोनों के बीच बहुत कड़वाहट हो गई थी। दोनों ने ही नृत्य-गीत निर्देशन से कॅरियर शुरू किया - संजय ने ‘1942 ए लव स्टोरी’ से और फरहा ने आमिर खान की ‘जो जीता वही सिकंदर’ से। बहरहाल, यह हास्य फिल्म दो दोस्त-दुश्मनों को पुन: दोस्त बना रही है। संजय और बेला भंसाली सगे भाई-बहन हैं, परंतु उनकी निर्देशकीय शैली भिन्न होगी, क्योंकि अभावों का समान बचपन जीते हुए भी उस कड़वाहट के प्रति दोनों का दृष्टिïकोण अलग-अलग है।

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