भारत में छद्म बुद्धिजीवियों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसके कुछ नुमाइंदे पत्रकारिता में भी हैं और जो प्राय: आम आदमियों में लोकप्रिय चीजों को हिकारत की निगाह से देखता है। उनकी हिकारत के दायरे में साहित्य, सिनेमा और राजनीति भी शामिल है। ममता बनर्जी तथाकथित भद्रलोक से नहीं हैं, अत: उनकी जबरदस्त चुनावी जीत को भी इत्तफाक ही माना जा रहा है।
पश्चिम बंगाल का शासन ‘राइटर्स बिल्डिंग’ से चलाया जाता है और इसके नाम में भी भद्रलोक ध्वनित होता है। कुछ पाठकों ने यह जानने का आग्रह किया है कि लोकप्रिय फिल्मों की श्रेणी में ‘दबंग’ को शिखर पुरस्कार देने पर क्या प्रतिक्रिया हुई है।
सलमान खान पुरस्कारों के तमाशे में कोई खास रुचि नहीं लेते, अत: वे न अति उत्साहित लगे और न ही खिन्न लगे। उनका कहना है कि देश के दर्शकों ने फिल्म को वर्ष की सबसे सफल फिल्म बनाया और राष्ट्रीय पुरस्कार समिति ने उसी पर अपनी मोहर लगाई है। वह हमेशा आम दर्शकों के पसंदीदा नायक रहे हैं और पूरे वर्ष उनके मकान के बाहर काफी संख्या में प्रशंसक जमा रहते हैं। सलमान की सोच में कोई छद्म बौद्धिक दंभ नहीं है और कभी कोई पूर्वनिर्धारित योजना के तहत वह काम भी नहीं करते। उनका प्रेम निश्छल है और हिकारत में भी कोई मिलावट नहीं है।
बहरहाल ‘दबंग’ मसाला फिल्म है। इसमें कर्णप्रिय संगीत है और ‘मुन्नी बदनाम’ की लोकप्रियता के कारण साजिद-वाजिद के बाकी सारे गानों के माधुर्य को यथोचित सराहना नहीं मिली। इस एक्शन फिल्म की प्रेम-कथा लोगों को बहुत पसंद आई है और सोनाक्षी की ताजगी भी सराही गई है। कथा में सौतेले भाइयों के रिश्ते के साथ पारिवारिकता के तत्वों का समावेश भी है।
ज्ञातव्य है कि ‘नाम’ में सगे भाइयों की जगह सलीम साहब ने सौतेलों के बीच गहरा प्रेम दिखाकर फिल्म को धार प्रदान की थी। यह हिंदुस्तानी सिनेमा के निजी आजमाए हुए फॉमरूले की फिल्म थी जो विगत कुछ वर्षो में ‘डॉलर सिनेमा’ के नीचे दबा दिए गए थे।
इसकी विशुद्ध भारतीयता इसकी ताकत थी, जिस कारण मल्टीप्लैक्स के साथ एकल सिनेमाघरों में भी अभूतपूर्व भीड़ जुटी। कुछ लोगों को भ्रष्ट पुलिस वाले की रॉबिन हुड नुमा छवि पर एतराज है, जबकि रॉबिन हुड का चरित्र हमेशा अवाम को पसंद रहा है। कुछ एतराज संवादों पर है।
कस्बों में इसी तरह की बातें की जाती हैं। ‘मुन्नी’ पर एतराज करने वाले लोग लोकगीतों के खुलेपन को नजरअंदाज कर रहे हैं और दशकों पूर्व ट्विन संगीत कंपनी द्वारा पेश सिपहिया गीतों की उन्हें जानकारी नहीं है। दरअसल सारे एतराज श्रेष्ठिवर्ग और भद्रलोक विचार-शैली से संबंध रखते हैं और इसी वर्ग ने ‘सिलसिला’ के लोकगीत ‘रंग बरसे भीगे..’ का खूब मजा लिया था क्योंकि वह श्रेष्ठिवर्ग की बनाई फिल्म थी और लोग ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..’ को भी भूल गए। दरअसल सदियों से इसी जमात ने तो ‘ले लीना दुपट्टा मेरा।’ ये लोग तो कोठों पर भी मुखौटा लगाकर गए हैं।
आम आदमी जीवन के असमान युद्ध में निहत्था ही लड़ता आया है। अन्याय आधारित समाज में उस गरीब के मनोरंजन पर एतराज है और विषम जीवन परिस्थितियों में उसके जरा-सा खुश हो जाने पर कुछ लोगों की भौहों में बल पड़ जाता है। अपने संगमरमरी बुर्जे पर बैठे लोग हैरान हैं कि यह कम्बख्त आम आदमी साला ठहाके कैसे लगा रहा है!
अनाज और सुविधाओं पर कंट्रोल लगा दिया है, इसकी खुशी पर ‘सस्ता’ और अश्लीलता का आरोप जड़ दो, इसके पुरस्कारों को कलंकित कर दो। यह हिकमत अनेक साहित्यकारों के खिलाफ कारगर सिद्ध हुई। चाहे मुनरो हों या मंटो, इस्मत चुगताई हों या डीएच लॉरेंस, राजा रवि वर्मा हों या एमएफ हुसैन।
राष्ट्रीय पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष जेपी दत्ता ने अधिकारिक घोषणा के समय लोकप्रिय फिल्म श्रेणी की बात के पहले अपना चश्मा उतारा और चेहरे पर भाव परिवर्तन कुछ ऐसा आभास दे रहा था मानो वे कुछ मजबूर होकर ‘दबंग’ की घोषणा कर रहे हैं। यह भी संभव है कि वे स्वाभाविक सहज थे और उनकी अदा का यह अर्थ ही गलत लगाया जा रहा है, परंतु मुमकिन है कि उनके अवचेतन में उनके बुद्धिजीवी प्रशंसक मौजूद हों और यह उन्हें क्षमायाचना सहित निवेदन हो, परंतु अगले दिन अपने बयान में उन्होंने ‘दबंग’ की प्रशंसा ही की।
छोटा-सा प्रभावशाली दल बड़ी झिझक से मन मसोसकर इस बात पर विद्रूप से मुस्कराता है कि उसके मतानुसार किसी ‘बाजारू’ चीज को पुरस्कार भी मिले, क्योंकि सारे राष्ट्रीय पुरस्कार उन फिल्मों के लिए आरक्षित रखे हैं, जिन्हें कम लोगों ने देखा और कमतर ने समझा हो।
पश्चिम बंगाल का शासन ‘राइटर्स बिल्डिंग’ से चलाया जाता है और इसके नाम में भी भद्रलोक ध्वनित होता है। कुछ पाठकों ने यह जानने का आग्रह किया है कि लोकप्रिय फिल्मों की श्रेणी में ‘दबंग’ को शिखर पुरस्कार देने पर क्या प्रतिक्रिया हुई है।
सलमान खान पुरस्कारों के तमाशे में कोई खास रुचि नहीं लेते, अत: वे न अति उत्साहित लगे और न ही खिन्न लगे। उनका कहना है कि देश के दर्शकों ने फिल्म को वर्ष की सबसे सफल फिल्म बनाया और राष्ट्रीय पुरस्कार समिति ने उसी पर अपनी मोहर लगाई है। वह हमेशा आम दर्शकों के पसंदीदा नायक रहे हैं और पूरे वर्ष उनके मकान के बाहर काफी संख्या में प्रशंसक जमा रहते हैं। सलमान की सोच में कोई छद्म बौद्धिक दंभ नहीं है और कभी कोई पूर्वनिर्धारित योजना के तहत वह काम भी नहीं करते। उनका प्रेम निश्छल है और हिकारत में भी कोई मिलावट नहीं है।
बहरहाल ‘दबंग’ मसाला फिल्म है। इसमें कर्णप्रिय संगीत है और ‘मुन्नी बदनाम’ की लोकप्रियता के कारण साजिद-वाजिद के बाकी सारे गानों के माधुर्य को यथोचित सराहना नहीं मिली। इस एक्शन फिल्म की प्रेम-कथा लोगों को बहुत पसंद आई है और सोनाक्षी की ताजगी भी सराही गई है। कथा में सौतेले भाइयों के रिश्ते के साथ पारिवारिकता के तत्वों का समावेश भी है।
ज्ञातव्य है कि ‘नाम’ में सगे भाइयों की जगह सलीम साहब ने सौतेलों के बीच गहरा प्रेम दिखाकर फिल्म को धार प्रदान की थी। यह हिंदुस्तानी सिनेमा के निजी आजमाए हुए फॉमरूले की फिल्म थी जो विगत कुछ वर्षो में ‘डॉलर सिनेमा’ के नीचे दबा दिए गए थे।
इसकी विशुद्ध भारतीयता इसकी ताकत थी, जिस कारण मल्टीप्लैक्स के साथ एकल सिनेमाघरों में भी अभूतपूर्व भीड़ जुटी। कुछ लोगों को भ्रष्ट पुलिस वाले की रॉबिन हुड नुमा छवि पर एतराज है, जबकि रॉबिन हुड का चरित्र हमेशा अवाम को पसंद रहा है। कुछ एतराज संवादों पर है।
कस्बों में इसी तरह की बातें की जाती हैं। ‘मुन्नी’ पर एतराज करने वाले लोग लोकगीतों के खुलेपन को नजरअंदाज कर रहे हैं और दशकों पूर्व ट्विन संगीत कंपनी द्वारा पेश सिपहिया गीतों की उन्हें जानकारी नहीं है। दरअसल सारे एतराज श्रेष्ठिवर्ग और भद्रलोक विचार-शैली से संबंध रखते हैं और इसी वर्ग ने ‘सिलसिला’ के लोकगीत ‘रंग बरसे भीगे..’ का खूब मजा लिया था क्योंकि वह श्रेष्ठिवर्ग की बनाई फिल्म थी और लोग ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है..’ को भी भूल गए। दरअसल सदियों से इसी जमात ने तो ‘ले लीना दुपट्टा मेरा।’ ये लोग तो कोठों पर भी मुखौटा लगाकर गए हैं।
आम आदमी जीवन के असमान युद्ध में निहत्था ही लड़ता आया है। अन्याय आधारित समाज में उस गरीब के मनोरंजन पर एतराज है और विषम जीवन परिस्थितियों में उसके जरा-सा खुश हो जाने पर कुछ लोगों की भौहों में बल पड़ जाता है। अपने संगमरमरी बुर्जे पर बैठे लोग हैरान हैं कि यह कम्बख्त आम आदमी साला ठहाके कैसे लगा रहा है!
अनाज और सुविधाओं पर कंट्रोल लगा दिया है, इसकी खुशी पर ‘सस्ता’ और अश्लीलता का आरोप जड़ दो, इसके पुरस्कारों को कलंकित कर दो। यह हिकमत अनेक साहित्यकारों के खिलाफ कारगर सिद्ध हुई। चाहे मुनरो हों या मंटो, इस्मत चुगताई हों या डीएच लॉरेंस, राजा रवि वर्मा हों या एमएफ हुसैन।
राष्ट्रीय पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष जेपी दत्ता ने अधिकारिक घोषणा के समय लोकप्रिय फिल्म श्रेणी की बात के पहले अपना चश्मा उतारा और चेहरे पर भाव परिवर्तन कुछ ऐसा आभास दे रहा था मानो वे कुछ मजबूर होकर ‘दबंग’ की घोषणा कर रहे हैं। यह भी संभव है कि वे स्वाभाविक सहज थे और उनकी अदा का यह अर्थ ही गलत लगाया जा रहा है, परंतु मुमकिन है कि उनके अवचेतन में उनके बुद्धिजीवी प्रशंसक मौजूद हों और यह उन्हें क्षमायाचना सहित निवेदन हो, परंतु अगले दिन अपने बयान में उन्होंने ‘दबंग’ की प्रशंसा ही की।
छोटा-सा प्रभावशाली दल बड़ी झिझक से मन मसोसकर इस बात पर विद्रूप से मुस्कराता है कि उसके मतानुसार किसी ‘बाजारू’ चीज को पुरस्कार भी मिले, क्योंकि सारे राष्ट्रीय पुरस्कार उन फिल्मों के लिए आरक्षित रखे हैं, जिन्हें कम लोगों ने देखा और कमतर ने समझा हो।
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