Friday, 20 May 2011

लव, हास्य और पतझड़ का मौसम


बॉक्स ऑफिस पर यह मौसम पतझड़ का है और सूखे पत्तों की तरह फिल्में टपक रही हैं। इस आईपीएल तमाशा दौर में विपुल शाह की शैफाली शाह और राहुल बोस अभिनीत ‘कुछ लव जैसा’ और अभिषेक पाठक की ‘प्यार का पंचनामा’ का प्रदर्शन हो रहा है। इस समय फिल्म उद्योग में प्रचलित मान्यता है कि हास्य फिल्में सुरक्षित होती हैं और उद्योग को ‘प्यार’ का भी जुनून रहा है। इन दोनों फिल्मों के नाम से ध्वनित होता है कि प्रेम और हास्य को मिलाया गया है।

अभिषेक पाठक की फिल्म में आधा दर्जन नए कलाकार हैं और विपुल शाह की फिल्म में अनुभवी तथा मंझे हुए कलाकार हैं। ‘कुछ लव जैसा’ का प्रदर्शन अगले शुक्रवार को होगा। राहुल बोस ने सबसे अधिक कम बजट वाली फिल्मों में विविध भूमिकाएं की हैं और वह इस श्रेणी की फिल्मों के शाहरुख खान माने जाते हैं। शैफाली शाह छोटे परदे की महारानी रही हैं और बड़े परदे पर भी उन्होंने महत्वपूर्ण भूमिकाएं की हैं। दरअसल शैफाली शाह की अपार प्रतिभा अभी तक अप्रदर्शित है और यह फिल्म उनके पति ने इसी उद्देश्य से बनाई है।

इस फिल्म में शैफाली शाह अपने उदासीन पति से दुखी अपने जन्मदिन पर इत्तफाक से एक अपराधी से टकराती हैं और उन दोनों के बीच पनपे रिश्ते की कहानी है, जिसे शायद लव जैसा कहा गया है। सुना है कि शैफाली ने इस भूमिका की तैयारी के लिए एक दिन सामान्य कैदी की तरह यथार्थ जेल में छद्म नाम से गुजारा। कहानी तो यह भी बनती है कि अनुभव प्राप्त करने आई महिला कलाकार को जेल के कैदी पीट दें, क्योंकि जेल के भीतर की दुनिया एक बीहड़ की तरह होती है, जहां से ग्रेजुएट होकर अपराधी शातिर हो जाते हैं।

बहरहाल कुछ कलाकार इस तरह के अनुभव को आवश्यक मानते हैं। दिलीप साहब ने ‘कोहिनूर’ में सितार बजाने के छोटे से दृश्य के लिए लंबा वक्त सीखने में गुजारा। बलराज साहनी और ओमप्रकाश ने कई दिनों तक पैडल से चलने वाला रिक्शा चलाया और ‘दो बीघा जमीन’ और ‘सिटी ऑफ जॉय’ में बढ़िया अभिनय कर सके। सर रिचर्ड एटनबरो की ‘गांधी’ की शूटिंग प्रारंभ होने के महीनों पहले अभिनेता ने चरखा चलाने का अभ्यास किया, उपवास रखे और कई किलो वजन घटाया। दूसरी तरफ संजीव कुमार और राज कपूर जैसे कलाकार कोई तैयारी नहीं करते थे। केवल शॉट के पहले किरदार में डूबते और कमाल का अभिनय करते थे।

दरअसल अभिनय के विभिन्न तरीके हैं और कोई भी स्कूल गलत या सही नहीं है। यह व्यक्तिगत प्रतिभा और मिजाज की बात है। किशोर कुमार ने संगीत का विधिवत ज्ञान नहीं लिया था। कुछ कलाकार खूब रिहर्सल करते हैं और कुछ का खयाल है कि ज्यादा रिहर्सल से अभिनय सहज और स्वाभाविक नहीं रहकर मशीनवत हो जाता है। मांझने से निखार भी आता है और बर्तन घिस भी सकता है।

मैथड स्कूल के सिद्धहस्त कलाकार मर्लन ब्रेंडो शूटिंग के पहले और शूटिंग समाप्त होने के बाद भी भूमिका में इतने अधिक रमे रहते थे कि अपने मनोचिकित्सक की सहायता से बमुश्किल उससे उबर पाते थे। दिलीप कुमार भी लगभग दर्जन भर त्रासदी फिल्मों में अभिनय के बाद लंदन के मनोचिकित्सक की सलाह पर त्रासदी फिल्मों से कुछ समय तक दूर रहने के कारण गुरुदत्त की ‘प्यासा’ नहीं कर सके, जिसका अफसोस उन्हें आज तक है। ‘आजाद’, ‘कोहिनूर’ और ‘राम और श्याम’ उनके स्वस्थ होने की प्रक्रिया के तहत की गई थीं। बहरहाल आज व अगले सप्ताह प्रदर्शित दोनों हास्य फिल्में बॉक्स ऑफिस पर लंबा सूखा तोड़ने में सफल होती हैं या नहीं, यह दर्शक तय करेंगे। शैफाली शाह अद्भुत कलाकार हैं।

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