दरअसल ‘धूम’ शृंखला ‘फास्ट एंड फ्यूरियस’ से प्रेरित है और तीव्र गति से चलने वाले वाहनों के प्रति आज के युवा वर्ग का उत्साह देखकर ही ये फिल्में गढ़ी जाती हैं, जिनमें नए किस्म का एक्शन, पुराना भरोसेमंद सेक्स और पात्रों का सनकीपन मिलाकर दर्शक को सनसनीखेज मनोरंजन प्रस्तुत किया जाता है।
प्राय: फिल्मों के बारे में यह लोकप्रिय बात कही जाती है कि फिल्म फास्ट है या स्लो है, लंबी है या छोटी है। दरअसल मनोरंजन करने वाली को फास्ट और बोर करने वाली को दर्शक स्लो कहते हैं। यह कथा और प्रस्तुतिकरण पर निर्भर करता है और दर्शक की बदली हुई रुचि भी इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। दिलीप कुमार अभिनीत ‘देवदास’ को सराहने वाली पीढ़ी को सहगल की ‘देवदास’ स्लो लगती थी, जैसे शाहरुख अभिनीत ‘देवदास’ पसंद करने वालों को दिलीप कुमार अभिनीत धीमी लगती है। घूमने वाला पहिया प्रगति का प्रतीक रहा है और चलने वाला चक्र समय का आकलन करता है। समय के साथ विज्ञान ने घूमने वाले पहिए से तीव्रतर गति वाले वाहन बनाए हैं। इनके साथ ही समाज में परिवर्तन आए हैं, मसलन हरित क्रांति के समय ग्रामीण क्षेत्र में मोटर साइकिल के आने से सोच भी बदली। जांघों के नीचे पांच हॉर्स पावर वाले इंजन का नशा चलाने वाला अपनी नसों में दौड़ता महसूस करता है। इसी के साथ ग्रामीण क्षेत्र में अपराध और अपहरण के प्रकरणों की संख्या बढ़ी है।
कारों और मोटर साइकिलों का इस्तेमाल फिल्मों में हर दौर में हुआ है। सामान्य गति वाली कारों के जमाने में एक ओर किशोर कुमार ने हास्य फिल्म ‘चलती का नाम गाड़ी’ रची तो दूसरी ओर गंभीर दार्शनिक ‘अजांत्रिक’ बंगाल में बनी। साथ ही नासिर हुसैन की फॉर्मूला फिल्मों में कार के कई दृश्य होते थे। दिनेश हिंगू पारसी की भूमिका में अपनी कार ठुकवाते रहते थे। अमर कुमार की एक फिल्म में नायक राजेंद्र कुमार गैरेज मैकेनिक हैं और अमीरों से नफरत करते हैं। एक दिन अमीर की कार सुधारने से इंकार करते हैं और सहायक मोहन चोटी के पूछने पर कहते हैं कि ये कार वाले अमीरजादे कमीने होते हैं। इस पर मोहन चोटी कहते हैं कि उस्ताद हम कब कमीने बनेंगे।
बहरहाल, जेम्स बांड फिल्मों के आते ही विशेष गैजेट्स से सुसज्जित कारों का प्रयोग सिनेमा में प्रारंभ हुआ और फिरोज खान ने तो कार रेसिंग की पृष्ठभूमि पर ‘अपराध’ नामक फिल्म भी बनाई। मारुति के आगमन से मध्यम वर्ग के मन में नए सपने जागे और उदारवाद के बाद बाजार में फैंसी कारों का ढेर लग गया। इसी विषय पर विगत वर्ष हबीब फैजल की ‘दो दुनी चार’ फिल्म आई थी। प्रीतीश नंदी ने एक लेख में लिखा है कि धनाढ्य वर्ग में वैध या अवैध ढंग से आयात की गई कारों ने एक नई जाति व्यवस्था को जन्म दिया है और ब्रांड इस नई वर्ण व्यवस्था का मानदंड है। इसी बदलते समाज में तेज वाहनों पर आक्रोश भरे पात्रों की फिल्में आयात की जा रही हैं। युवा वर्ग की मति गति में है।
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