Sunday, 29 May 2011

राज कपूर : जीना यहां, मरना यहां, इसके सिवा जाना कहां!


दो जून, 1988 को मात्र चौंसठ वर्ष की आयु में राज कपूर की मृत्यु हुई और उस समय तक वे हिना के तीन गीत रिकॉर्ड कर चुके थे। पटकथा पर निरंतर काम चल रहा था। राज कपूर निर्माण के साथ ही पटकथा में परिवर्तन करते रहते थे। दरअसल कागज पर लिखी पटकथा की जगह वे अपने निरंतर सृजनशील दिमाग में अलिखित पटकथा पर फिल्म रचते थे। दिमाग में कोई भूली-बिसरी ध्वनि गूंजती, तो उसके लिए नया दृश्य रचते थे। इस मायने में उन्हें सिनेमा का त्वरित रचनाकार या आशु कवि भी मान सकते हैं।

सिनेमा के इस औघड़ बाबा की मृत्यु उनकी न बनाई जाने वाली ‘जोकर दो’ के क्लाइमैक्स की तरह थी। सबसे सफल फिल्म प्रदर्शित हुई थी, शिखर सम्मान मिल रहा था, अमेरिका के विभिन्न शहरों में फिल्मों का पुनरावलोकन हो रहा था, गोया कि जोकर जीवन के अन्यतम तमाशे के समय प्राण तज रहा था, जैसा ‘जोकर’ भाग एक में जोकर के पिता की मृत्यु दर्शक देख चुके थे।

राज कपूर के लिए फाल्के पुरस्कार का विशेष महत्व यह था कि वे अपने पिता पृथ्वीराज कपूर को दिया फाल्के पुरस्कार उनकी मृत्यु के बाद स्वयं लेने आए थे। राज कपूर के जीवन में सबसे बड़ी प्रेरणा उनके पिता थे। और विराट सफलता अर्जित करने के बाद भी उन्हें कभी नहीं लगा कि पिता से अधिक कर पाए हैं। पुरस्कार समारोह में राष्ट्रपति ने उन्हें श्वास के लिए संघर्ष करते देखा, तो स्वयं मंच से उतरकर उनके पास गए और फिल्म मुहावरे मंे ंयह जोकर के ईसा मसीह को हंसाने की तरह है।

ज्ञातव्य है कि बचपन में स्कूल के एक नाटक में अपनी साइज से बड़ा गाउन पहने राज कपूर मंच पर गिरे, तो क्राइस्ट बना लड़का हंस दिया था। राष्ट्रपति से पुरस्कार लेने के क्षण तक उन्हें होश था और अगले ही क्षण वे कोमा में चले गए।

अस्पताल में तीस दिन तक उन्हें मशीनों के सहारे तकनीकी तौर पर जीवित माना गया, परंतु चेतना का एक क्षण वही था। उस एक क्षण में मस्तिष्क में क्या कौंधा होगा? माता, पिता, पत्नी, प्रेयसी या कैमरामैन राधू से कहना कि टॉप शॉट लेना है और गीत- ‘कल खेल में हम हों न हों, गर्दिश में तारे रहेंगे सदा, भूलोगे तुम भूलेंगे वो, पर तुम्हारे रहेंगे सदा!’ - प्रसिद्ध फिल्म समीक्षक और आलोचक

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