Saturday, 7 May 2011

बच्चों की चिल्लर बनाम मंत्री का काला धन

जीवन और सिनेमा में जहां उम्मीद न हो, वहां से बेइंतहा खुशी मिलती है और संभावित आनंद स्रोतों को सूखा पाया जाता है। विकास बहल की फिल्म ‘चिल्लर पार्टी’ बहुत ही मनोरंजक फिल्म है और जीवन मूल्यों को रेखांकित भी करती है। यह छोटे से बजट की सीधी-सादी सिताराविहीन फिल्म है, जिसमें कोई आइटम नहीं है। इसकी विदेशों में शूटिंग नहीं हुई है। यहां तक कि इसमें कोई नामी चरित्र अभिनेता भी नहीं है। दर्जन भर बच्चे हैं और एक कुत्ता है, वह भी कोई खास नस्ल का नहीं, वरन सड़कछाप आम कुत्ता है और सारी जद्दोजहद इसी कुत्ते को बचाने की है।



फिल्म में असमान द्वंद्व है। एक तरफ घमंडी मंत्री है। अपने पूरे सरकारी तामझाम और अतिरिक्त अधिकारों समेत, तो दूसरी ओर मध्यम वर्ग के बच्चे हैं जिनके पास एकमात्र संबल नैतिकता है। इस फिल्म के बच्चे उन जीवन मूल्यों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जिनकी खातिर संघर्ष उनके माता-पिता को करना चाहिए था, परंतु वे मंत्री की गीदड़ भभकियों से भयभीत हैं और उस व्यवस्था से आतंकित हैं, जिनका वे स्वयं भी एक अनिच्छुक हिस्सा हैं।



फिल्म के अंतिम दृश्य में एक अनाथ, अशिक्षित बच्चे का अत्यंत संक्षिप्त बयान काबिले गौर है कि वह जब इस मध्यमवर्गीय रहवासी क्षेत्र में कारें धोने की नौकरी करने आया तो अपनी उम्र के बच्चों को बस्ते लिए स्कूल जाते हुए बड़ी हसरत से देखता था कि काश वह भी पढ़ पाता, परंतु आज उसे न पढ़ पाने का कोई दुख नहीं है। छुपा हुआ अर्थ यह है कि पढ़े-लिखों की अनैतिकता और डर वह देख चुका है। ऐसी शिक्षा जो सच्चाई से लडऩा न सिखाए और हमेशा भयभीत रखे, वह अपना अर्थ और उद्देश्य दोनों ही खो देती है। किसी और संदर्भ में निदा फाजली की एक नज्म का आशय कुछ इस तरह है कि बच्चों को भारी-भरकम किताबों से बचाइए, दो-चार किताबें पढ़कर वे हमारी-तुम्हारी तरह हो जाएंगे। निहित अर्थ है कि हमारी तरह कायर हो जाएंगे।



किताबें कायरता रचें, इससे बड़ी विडंबना क्या हो सकती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम किताबों के बादलों से गुजरते हैं, परंतु न तो उनकी नमी हमें छूती है और न हम उसमें छिपी बिजली को थामने का प्रयास करते हैं? क्या हम पढ़ाई के नाम पर केवल रस्म अदायगी कर रहे हैं, जैसे हमारी प्रार्थनाएं केवल निजी डरों से प्रेरित हैं और हमारे पश्चाताप भी कपड़ों का मैल निकाले बिना मात्र पानी में डुबाकर सुखाने की तरह हैं, जैसा कामचोर कपड़े धोने वाली करती है? हम तो गंगा में भी सुरक्षा का रेनकोट पहनकर डुबकी लगाते हैं।



बहरहाल, यूटीवी जिसने ‘दिल्ली 6’ और ‘गुजारिश’ जैसी भव्य विफलताओं में धन लगाया था, उसने ही इस सार्थक फिल्म में भी पूंजी लगाई। वे भव्य फिल्मों को प्रार्थना की तरह और छोटी फिल्मों को अपने पश्चाताप की तरह बनाते हैं। इस फिल्म को सलीम साहब और सलमान खान ने देखा और सलीम साहब ने अपनी जीती हुई एक फिल्मफेयर ट्रॉफी इस फिल्म के युवा निर्देशक को आशीर्वाद स्वरूप दी और सलमान खान ने निर्माता से कहा कि वे इस फिल्म के प्रचार के लिए समय निकालेंगे और प्रदर्शन में हर तरह की सहायता करेंगे। कुछ लोग लिखने के साथ ही साहित्य को जीते भी हैं।

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