Monday, 23 May 2011

भारतीय जेल और भारतीय सिनेमा में जेल


डीएमके प्रमुख एम. करुणानिधि की प्रिय बेटी कनिमोझी तिहाड़ जेल में पहुंच गई हैं, जहां ए. राजा भी हैं, सुरेश कलमाडी भी हैं और 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले से जुड़े कुछ और लोग भी पहुंचे हैं। ये सब शक्तिशाली और अमीर लोग अपनी आलीशान हवेलियों के सबसे छोटे बाथरूम से भी छोटे कमरे में रहते हुए कैसा महसूस कर रहे होंगे? क्या उन्हें पश्चाताप होगा या अपने साथ हुए तथाकथित अन्याय पर आक्रोश महसूस कर रहे होंगे?

कलमाडी की हालत तो यह है कि उनका अपना कोई उनसे मिलने भी नहीं आ रहा है। कनिमोझी मां के गले लगकर रोना चाहती हैं। क्या राजा और कनिमोझी कभी एक-दूसरे को देख पाते हैं? पुरुष और नारियों के लिए जेल में अलग-अलग व्यवस्था है। यह आशा की जा सकती है कि तिहाड़ में कई महत्वपूर्ण व्यक्ति भविष्य में आ सकते हैं और वहां वे अपनी सभा करके अखिल भारतीय महा-भ्रष्टाचार दल का गठन भी कर सकते हैं।

यह खूब प्रचारित हो रहा है कि इन सब महानुभावों के साथ सामान्य कैदियों सा व्यवहार किया जा रहा है, परंतु यह सच नहीं लगता क्योंकि हर देश की जेलें वैसी ही होती हैं, जैसी उस देश में समानता और नैतिकता की संरचना होती है। हमारे समाज की तरह हमारी जेलों में भी विशिष्ट कैदियों के साथ वैसी मारपीट नहीं होती, जैसी आम कैदियों के साथ होती है। हमारे यहां तो स्वर्ग और नर्क की कल्पनाओं में भी श्रेणियां हैं। अगर इन विशिष्ट लोगों के साथ एक दिन भी सामान्य कैदी जैसा व्यवहार हो तो ये बीमार पड़ जाएं और गुनाहों से तौबा कर लें।

अपराध जगत में जेल काटकर आए व्यक्ति को सम्मान की निगाह से देखा जाता है। जैसे फौज में अलग-अलग रैंक होती हैं, वैसे ही अपराध जगत में भी किसने विभिन्न जेलों में कितना समय काटा है, उसके आधार पर उसे रैंक दी जाती है। इस मामले में तिहाड़ जेल का काफी नाम है। यह कॉलेज नहीं वरन विश्वविद्यालय माना जाता है। तिहाड़ से छूटे अपराधी को पुणो की जेल से छूटा अपराधी सलाम करता है। किसी जमाने में रंगून के कालापानी का बड़ा नाम था और उसे ऑक्सफोर्ड जैसा सम्मान प्राप्त था। युवा अपराधी सजा काटकर आने के बाद ज्यादा शातिर अपराधी हो जाता है, गोयाकि ‘ग्रेजुएट’ होकर आता है।

अपराध और दंड शास्त्र में भांति-भांति की धारणाएं रही हैं और गांधीवादी अवधारणा से प्रेरित होकर वी. शांताराम ने ‘दो आंखें बारह हाथ’ नामक महान फिल्म रची थी, जिसमें जेलर खूंखार कैदियों का जीवन बदल देता है। राजेश खन्ना अभिनीत फिल्म ‘दुश्मन’ में अपराधी नायक को जज महोदय उस परिवार की सेवा करने के लिए भेजते हैं, जिसके एकमात्र कमाऊ व्यक्ति को उसने ट्रक से कुचला था।

हमारे अनेक प्रांतों की जेलों में अपराधी लोग जेल अधिकारियों को मोटा धन देकर जेल में मोबाइल भी पाते हैं और विशेष भोजन भी उन्हें उपलब्ध कराया जाता है। यहां तक कि कुछ पिछड़े इलाकों की जेलों में अपराधियों को शराब और औरतें भी उपलब्ध कराई जाती हैं। जेलों में भी माथा देखकर तिलक लगाया जाता है।

गुलामी के दौर में आजादी के लिए लड़ने वाले लोगों ने जेलें काटी हैं। भगत सिंह और उनके साथियों ने बेइंतहा जुल्म सहा है। पंजाब के दीनदयाल शर्मा द्वारा लिखी मनोज कुमार की ‘शहीद’ में भगत सिंह वाली जेल में प्राण साहब को एक जरायमपेशा कातिल का काल्पनिक पात्र दिया गया था, जो जेल में भगत सिंह और साथियों का नैतिक बल देखकर जीवन में पहली बार रोता है। यह उदाहरण है कि कैसे सत्य आधारित फिल्म में एक काल्पनिक पात्र डालकर सत्य को धार दी जाती है। फिल्म ‘आवारा’ के जेल दृश्य में युवा नायक को रोटी मिलती है तो वह कहता है कि यह बाहर मिल जाती तो मैं भीतर क्यों आता।

कंस द्वारा अपनी बहन और बहनोई को वर्षो जेल में रखने और जेल में ही कृष्ण के जन्म होने के कारण भारतीय समाज में जेल की एक पवित्र अवधारणा भी बनी है। जेल में सजा काटते हुए पं. जवाहरलाल नेहरू ने अजर-अमर साहित्य रचा है। बहरहाल, वर्तमान में भ्रष्ट व्यक्तियों के जेल जाने से जेल इतिहास में नया अध्याय लिखा जा रहा है।http://bollywood.bhaskar.com/article/ENT-BOL-indian-prison-and-jail-in-indian-cinema-2127443.html

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