चार मई से न्यूयॉर्क में शुरू हुए भारतीय फिल्म समारोह का प्रारंभ हबीब फैजल की ‘दो दुनी चार’ से हुआ और समापन रितुपर्णो घोष की रबींद्रनाथ टैगोर की कथा ‘नौका डूबी’ पर आधारित फिल्म से हुआ। गुरुदेव टैगोर की 150वीं जयंती सारी दुनिया में विविध ढंग से मनाई गई।
कलकत्ता की न्यू थियेटर्स फिल्म निर्माण संस्था को अपने प्रारंभ से ही गुरु रबींद्रनाथ टैगोर का आशीर्वाद प्राप्त था। सिनेमा के उद्भव के समय साहित्यकार इस नए माध्यम को कोई महत्व नहीं देते थे, परंतु गुरुदेव ने इसका स्वागत ही नहीं किया, वरन शांति निकेतन के छात्रों द्वारा अभिनीत अपनी रचना ‘नाटिर पूजा’ का निर्देशन भी किया। न्यू थियेटर्स के स्थायी संगीतकार आरसी बोराल ने फिल्मों में रबींद्र संगीत का उपयोग किया। तमाम बंगाली संगीतकारों की रचनाओं में रबींद्र संगीत ध्वनित हुआ है। दरअसल सौ प्रतिभाशाली लोग जितना काम पूरे जीवन में कर सकते हैं, उससे अधिक सृजन अकेले रबींद्रनाथ टैगोर ने किया।
तपन सिन्हा ने टैगोर के ‘क्षुधितो पाषाण’ पर आधारित फिल्म के प्रारंभिक भाग की शूटिंग भोपाल में की थी और उनकी कथा ‘नौका डूबी’ पर अनेक भारतीय भाषाओं में कई बार फिल्में बनी हैं। हेमेन गुप्ता ने टैगोर की ‘काबुलीवाला’ पर 1961 में बलराज साहनी अभिनीत फिल्म बनाई थी। यह अफगानिस्तान के एक पठान की कहानी है, जो अपनी जन्मभूमि में छोड़कर आई अपनी बेटी की छवि एक भारतीय बालिका में देखता है। इस मर्मस्पर्शी कथा की भावना हम कबीर खान की ‘काबुल एक्सप्रेस’ में भी देखते हैं।
सिनेमा के महाकवि सत्यजित राय ने टैगोर की लघुकथाओं ‘पोस्टमास्टर’, ‘मोनीहारा’ और ‘संपत्ति’ पर ‘तीन कन्या’ नामक फिल्म रची और उनकी टैगोर आधारित ‘चारुलता’ को उनकी श्रेष्ठ फिल्म माना जाता है। सत्यजित राय पर मैरी सेटन ने अपनी किताब में लिखा है कि 1940 में सत्यजित राय के पिता और दादा के मित्र रबींद्रनाथ टैगोर ने राय को शांति निकेतन में अध्ययन के लिए कहा। इसके पहले वे प्रेसीडेंसी कॉलेज के छात्र थे। शांति निकेतन में महान कलाकार नंदलाल बोस से सत्यजित ने कला के पाठ पढ़े और वहां बिताए गए समय में ही वे स्वयं को समझने लगे और अपने निर्णय लेने लगे, जिनमें मूल था फिल्म बनाने का। अत: टैगोर के संक्षिप्त सान्निध्य ने राय को निर्णय करने की क्षमता दी और कालांतर में राय ही टैगोर कथाओं के अन्यतम फिल्मकार सिद्ध हुए।
कुमार साहनी ने टैगोर आधारित ‘चार अध्याय’ 1971 में हिंदी भाषा में बनाई, जो इला की कहानी है। भारत की आजादी की लड़ाई में सशस्त्र कूदे लोगों के संघर्ष और जीवन से जुड़ी इला की दुविधा यह है कि हर दल अपने विचारों को अनुयायी लोगों में इस कदर ठंूसता है कि उनकी वैचारिक शक्ति को सीमित कर देता है। ज्ञातव्य है कि गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर ने महात्मा गांधी को लिखे अपने कुछ पत्रों में राष्ट्रवाद के महत्व को स्वीकार करते हुए उससे उत्पन्न जुनून की आलोचना की है, जो विचारों का रेजीमेंटेशन करता है। उनकी ‘घरे बाइरे’ में भी विमला को उसका पति संपूर्ण वैचारिक स्वतंत्रता देता है और वह राष्ट्रवादी नेता संदीप की ओर आकर्षित होती है, परंतु शीघ्र उसके मुखौटे के पार देखकर अपने पति की महानता को समझती है, जो आंदोलन में जली बस्तियों के आहतों की सेवा करता है।
दरअसल टैगोर रचित नारी पात्र उस स्वतंत्रता और समानता की बातें सोचती हैं, जो आज भी महिलाओं को उपलब्ध नहीं हैं। शरत बाबू की नारियां दिल हैं तो टैगोर की बुद्धि। रबींद्रनाथ टैगोर जैसी विलक्षण प्रतिभा सदियों में एक बार उभरती है। उसमें कोने-कोने को उजास से भरने की क्षमता होती है। आगरा में ताजमहल को देखकर उनकी लिखी कविता की पहली पंक्ति बहुत बार उद्धृत की गई है ‘समय के गाल पर थमा हुआ आंसू’ और यही कमोबेश गुरुदेव रबींद्रनाथ टैगोर का वर्णन भी है।
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